____ग. 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' के प्रति किसी भी सहृदय को आपत्ति या विराग नहीं होना चाहिये। हमारे यहाँ वीभत्स भी, जिसमे मज्जा, चर्बी, हाड-मांस आदि का वर्णन किया जाता है, 'नवरस' में परिगणित किया जाता है। वीभत्स- रस मे भी और रसो की तरह समान रूप से भावानुभूति मानी गयी है। इस प्रकार यदि प्रगतिवाद मे नग्न यथार्थवाद का रसात्मक वर्णन हो तो वह काव्य की श्रेणी मे ही आयेगा ।' एक पुस्तक के इस उद्धरण पर भी ध्यान जाना चाहिए- १. स्थायी साहित्य की विविधता पर जब हमारी दृष्टि - जायगी तो स्वाभाविक रूप से काव्यात्मक सब लक्षणो को सबल अंग के रूप मे स्वीकार करना होगा । २. रूसी सिद्धान्त से पालोचित साम्यवाद का प्रतीक, प्रगतिवाद सस्ती भावुकता को ढोने की अधिक सामग्री एकत्रित करता है। यह प्रगतिवादी साहित्य प्रौढ़ता या विशिष्टता की पूर्णता से दूर है । अतः, काव्य की सजीव आत्मा की अभिव्यक्ति उसमे नही है। ३. सस्ती भावुकता का सम्बन्ध काव्य से नहीं हो सकता। रोमांस को लेकर काव्य अपना स्थान निरूपित नहीं कर सकता ।२ ____ अब समालोचक महोदय को अपने वाक्य के इस अंश 'कविता जन- साधारण की वस्तु है ..."|--को इस रूप में बदल देना चाहिये-जनसाधारण की भाषा मे जनसाधारण की भावनाओ का ही रागात्मक या रसात्मक वर्णन होना चाहिये ; क्योकि आजकल का जनजीवन ही कविता का मुख्य विषय हो रहा है। दुःख है कि इन उक्त प्रगतिवादी मित्रो ने न तो संस्कृत-साहित्यशास्त्र का यथेष्ट अध्ययन ही किया और न मनन ही किया। केवल अँगरेजी-समालोचना-ग्रन्थो का ही इन्हे भरोसा है। यदि ये मित्र तुलनात्मक अध्ययन करते तो कभी ऐसी बाते न कहते । आज कितने 'साहित्यदर्पण-जैसे सर्वजनप्रिय उपलब्ध ग्रन्थ पढने को लालायित है ? अभी उसके हिन्दी-अनुवाद का दूसरा संस्करण भी समाप्त नहीं हुआ है। उधर देखिये तो अरस्तू के काव्यशास्त्र के अनेक प्रकार के संस्करण होते चले जा रहे है । क्या वे सर्वप्रथम प्राचीन पाश्चात्य प्राचार्य नहीं है ? आप प्राचीन प्राचार्यों को लेकर अपना नया दृष्टिकोण उपस्थित कीजिये । उनका सामंजस्य बैठाइये । न बैठे, तो मतभेद को प्रश्रय दीजिये । इन विवेचकों को तो इसीमे अामन्द आता है कि जहाँ तक हो प्राचीन आचार्यों पर कीचड़ उछालें। इसीमे वे आत्म- प्रतिष्ठा समझते हैं। यदि ऐसी वात न होती तो इसे वाक्यों के लिखने की क्या १. साहित्यिक निवधाक्ली। २. प्रगतिवाद की रूपरेखा।
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