रौद्र और वीर रस १८७ वीर के कम और रौद्र के अधिक अनुभाव हैं। वोर का स्थायी उत्साह है और रौद्र का क्रोध । उत्साह का अर्थ है कार्यारंभ में स्थायी र अर्थात् स्थिरता तथा उत्कट श्रावेश' । अँग्रेजी में इसको energetic enthusiasm-शक्ति-मूलक व्यग्रता, औत्सुक्य, अनुराग वा प्रयत्न कहते है। अभिप्राय यह कि नये-नये कार्यों के प्रारंभ में उनकी समाप्ति तक मन का प्रस्तुत होना ही उत्साह है। इसीको कहा है कि 'अच्छे लोग बारंबार विघ्नों से बाधित होने पर भी प्रारब्ध कार्य का परित्याग नहीं करते। इस व्याख्या से यही प्रकट होता है कि स्वस्थ शरीर और मन में जो कार्यकरी शक्ति की स्फूर्ति-लहर उठती है ; अर्थात् मन में काम करने की जो उमंग होती है वही उत्साह है । यह स्वगजनक या आतुरतामूलक एक चित्तवृत्ति है। इसे श्राप स्वाभाविक कहें चाहे नैमित्तिक, है यह शरीर और मन का धर्म ही ; शरीर और मानस की एक प्रेरक शक्ति हो । इसको भाव नहीं कहा जा सकता। श्राचार्यों ने उत्साह को स्थायी भाव ही नहीं, संचारी भाव भी माना है । संचारी भावों में भी इसको सब रसों में होनेवाला कहा गया; किन्तु उत्साह को उक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि वह भाव नहीं है। दूसरी बात यह कि इसका कोई विषय निश्चित नहीं। रति में भी उत्साह हो सकता है और भय में भी। इसका कोई स्वतंत्र ध्येय नही, विजय भी हो सकती है, भयावस्था में पलायन भी । अभिनव गुप्त ने तो उत्साह को भी शान्त रस का स्थायी माना है। इस अनिश्चित दशा में उत्साह को वीर रस का स्थायी भाव मानना कहाँ तक संगत है, विचारणीय है। अब क्रोध को लीजिये। प्रतिकूल व्यक्तियों के विषय में तीव्रता के उद्बोध का नाम क्रोध है। अर्थात् शत्रु के प्रति कठोरता प्रकट करने को क्रोध कहते हैं। क्रोध रौद्र का स्थायी भाव है। सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथवध करू। तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरू। इस उत्साह में क्रोध है। १ कार्यारम्भेषु संरंभः स्थेयानुत्साह उच्यतु । सा० २ विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारभ्यवोत्तममना न परित्यजन्ति । ३ उत्साह विस्मयौ सर्वरसेषु धभिचारिणौ !संगीत रत्नाकर ४ उत्साह एवास्य स्थायी इत्यन्ये |-- गृक्ष ५ प्रतिकूलेषु तेश्यस्थावबोधः क्रोध इष्यते ।-सा
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