पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२७४

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काव्यदर्पण बेचि देह दारा सुअन, होइ दास हूँ मन्द । रखिहौं निज बच सत्य करि अभिमानी हरिचंद। क्या धर्मवीर की इस उक्ति में क्रोध की झलक नही पायी जाती ? ऐसे उदाहरणो में उत्साह का भाव नहीं देखा जाता ; पर क्रोध का परिणाम अवश्य देखा जाता है । इससे इन दोनों के स्थानों में एक ही रस मानना ठीक है। अब प्रश्न यह है किसका किसमें अन्तर्भाव किया जाय। किसी का कहना है कि क्रोध व्यापक है और उत्साह व्याप्य । इस प्रकार वीर रस रौद्र रस में व्याप्त है। श्रतः रौद्र रस में वीर रस का अन्तर्भाव स्वाभाविक है । दूसरा पक्ष कहता है कि पहले क्रोध होता है, फिर वीर रस के कार्य दीख पड़ते हैं। इस प्रकार वीर रस के परिणामस्वरूप रौद्र रस के सामने से रौद्र का वीर रस में अन्तभाव होना ठीक है। एक का कहना है कि रौद्र रस की कोई स्वतन्त्र श्रास्वादयोग्यता ही नहीं और क्रोध के स्थान में श्रमर्ष को मान लेने से दोनों का एक ही में समावेश हो जायगा। अमर्ष का अर्थ है निन्दा, आक्षेप, अपमान आदि के कारण उत्पन्न हुए चित्त का अभिनिवेश' अर्थात् स्वाभिमान का जागना। युद्धप्रवृत्ति प्रतिकार भावना से ही उद्भूत होती है। इसमें असहनशीलता होती है। अमर्ष शब्द का भी यही अर्थ है। क्रोध की अपेक्षा अमर्ष की भावना व्यापक होती है। इससे वीर रस का स्थायी भाव अमर्ष माननीय है। उपयुक्त विचार मनोवैज्ञानिकों और नवीनतावादियों का है। हम इसे विचारणोय ही मानते हैं, मान्य नहीं। छठी छाया रौद्र-वीर-रस-समाधानपक्ष प्राचीनों ने मननपूर्वक हौ नौ रसों को मान्य ठहराया है ; क्योंकि इनमें अस्वाद की उत्कटता है, रक्षकता है, स्थायिता है और है उचित-विषयनिष्ठता। इन रौद्र और वीर, दोनों में भी पृथक्-पृथक् रसवत्ता है । इनपर थोड़ा विचार कीजिये। उत्साह स्थायी भाव है और सह जात भी। किसीको ग्लानि हो तो यह पछा जा सकता है कि वह ग्लानि क्यों है; पर राम क्यों उत्साही है यह नहीं पूछा जा सकता । क्योंकि वह तो एक स्थायी भाव है-सहजात है। मानवी मनःकोश १. अधिक्षेपापमानादेरमोंऽभिनिविष्टता ।-साद० २. नतु राम उत्साहशक्तिमानित्यत्र हेतुप्ररममा-म० गुप्त