१६० काव्यदपण रमों में अन्तर्भाव हो जायगा, यह ठीक नहीं। ऐसे तो यह भी कहा जा सकता है कि करुण रस का यथावसर शृङ्गार रस्त्र और वात्सल्य रस में अन्तर्भाव हो जायगा । दूसरी बात यह कि जहां अमर्ष का कुछ भी संचरण नही वहां वीर रस में उत्साह के अतिरिक्त कौन-सा स्थायी भाव माना जायगा ? कर्मवीर का एक उदाहरण लीजिये । चिलचिलाती धूप को जो चाँदनी देते बना। काम पड़ने पर करे जो शेर का भी सामना । जो कि हँस-हँस के चबा लेते हैं, लोहे का चना । है कठिन कुछ भी नहीं जिनके है जी में यह ठना। कोस कितने ही चलें पर वे कभी थकते नहीं। कौन-सी है गाँठ जिसको खोल वे सकते नहीं ॥-हरिऔध यहाँ अमर्ष का कहाँ लेश है ? कर्मवीर में उत्साह स्थायी का ही प्रास्वाद है। इसमें भावात्मक या सात्विक क्रोध को गंध भी नहीं है । पण्डितराज के 'पाण्डित्यवीर' का उदाहरण लें- यदि बोलें वाक्यपति स्वयं के सारद हूँ आइ। हूँ तयार हम मुख सुमिरि सब विधि विद्या पाइ।-पु० चतु० श्रमर्ष का कुछ भी लवलेश नहीं। अथवा सत्यवीर 'हरिश्चन्द्र' के इस पद्य में भी अमष कहाँ है ? चंद्र टरै सूरज टरै टरै जगत बेवहार । पै दृढ़ श्री हरिचंद के टरै न सत्य विचार । आधुनिक काल में सत्याग्रह, आमरण अनशन, भूख, हड़ताल करनेवाले वौर में अमर्ष का लवलेश मान सकते हैं वह भी महात्मा गांधी में नहीं। पर उक्त वीरों में या निम्नलिखित वीरों में अमर्ष नहीं मान सकते । कार्लाइल के कविवीर, दार्शनिकवीर, लेखकवीर श्रादि अनेक वीरों तथा महाभारत के 'शूराः बहुविधाः प्रोक्ताः' के उदाहरण-स्वरूप बुद्धिशूर आदि का किसी रस में समावेश होना कठिन है, भले ही क्षमाशूर, गुरुशुश्रूषाशूर आदि शूर शान्ति- भक्ति में समा जायँ। काव्यादर्श में दण्डी ने रसवत् अलंकार में इन दोनों के जो रूप दिखाये हैं उनसे ये और स्पष्ट हो जाते हैं। रौद्र रस-"जिसने मेरे सामने द्रौपदी को बाल पकड़कर खींचा वह पापी दुश्यावन क्या क्षण भर भी जी सकता है ?" इस प्रकार आलम्बन-स्वरूप शत्रु को
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