रौद्र-वीर-रस-समाधानपद १६१ देखकर भीम का स्थायी भाव क्रोध बहुत ही बढ़कर रौद्र रसत्व को प्राप्त कर गया । इससे यहाँ का यह कथन रसवत् अलंकारयुक्त है। वीर रस-"समुद्र-सहित पृथ्वी का बिना विजय किये, बिना अनेक यज्ञ किये और वाचकों को बिना धन दिये हुए हम कैसे राजा हो सकते हैं ?" इसमें उत्साह स्थायी भाव अपनी तीव्रता से वीर-रसात्मक हो गया। इससे यह इस कथन को रसवत् बना सका। इससे वीर रस तथा उत्साह स्थायी भाव को पृथक-पृथक् आवश्यकता निर्बाध है । क्रोध को स्थायो और रौद्र रस को वीर रस बनाकर उत्साह और रौद्र को उड़ा देना 'अव्यापार करने के समान साहित्य का विघातक कार्य है। सातवीं छाया वीर रस महात्मा गांधी संसार में शान्ति का उपाय एकमात्र अहिसा ही को बताते हैं । वे कहते हैं कि 'हिसा से हिंसा बढ़ती है। पर सांसारिक युद्ध का निःशेष होना कठिन है । मानव-समाज के युद्ध-विरुद्ध होने पर भी उसका ह्रास नहीं होता, दिनों- दिन बढ़ता ही जाता है, जो स्वार्थी सभ्यता की महिमा है। युद्ध का नामोनिशान मिट जाय तो भी वीर रस का ह्रास नहीं हो सकता। कारण यह कि केवल युद्ध हो वीरता-प्रदर्शन का स्थान नहीं है । यद्यपि युद्ध में ही वीररस की प्रधानता मानी गयो है, जान हथेली पर रखनेवाले सिपाही ही 'विक्टोरिया क्रास' पाते हैं तथापि युद्ध हो एकमात्र वीरता-प्रदर्शन का क्षेत्र नहीं है; अन्य भी अनेक स्थान हैं। सत्याग्रह-वीर गाँधी क्या किसी वीर से कम हैं ? यद्यपि इनको वीरता उनसे कम नहीं। फिर भी अब तक किसी ने ऐसे पुरस्कार से उन्हें पुरस्कृत नहीं किया। यह युद्ध-वीर के सम्बन्ध में लौकिक पक्षपात है । १ निगृह्यकेशेष्याकृष्टा कृष्णा येनाग्रतो मम । सोऽयं दुःशासनः पापो लब्धः किं जीवति क्षणम् ।। १२ इत्यामह्य परां कोटि क्रोधो रौद्रात्मतां गतः। ' भीमस्य पश्यतः शत्रु मित्येतद्रसवदचः ॥ २८८ २ अजित्वा सार्णवामूर्वोमनिष्ट्या विविधर्मखैः। अदत्वाचार्थमर्थिभ्यो भवेय पार्थिवः कथम् ।। २८४ इत्युत्साह-प्रकृष्टात्मा तिष्ठन् वीररसात्मना । रसवत्त्वं गिरामासां समर्थयितुमीश्वरः ।। ३८५ दशरूपक २ रा परिच्छेद
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