पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अद्भुत रखें अद्भुतता में लोकोत्तरता का थोड़ा बहुत समावेश रहता है, क्योंकि वह आश्चर्य की उत्पादिका होती है । अद्भुत से विचार को उत्तेजना मिलती है। इससे दार्शनिक और वैज्ञानिक भावों का उदय होता है-( philosophy begins in wonder ) । अद्भ तता का एक कारण अस्वाभाविकता भी है। साहित्यिक अद्भुतता में कूट-काव्य, चित्र-काव्य तथा विरोधाभास अलंकारों को गणना होती है। इनको यथार्थता ज्ञात होने पर आश्चर्य नहीं रहता है। किन्तु, सब जगह ऐसी बात नहीं। एक उदाहरण- आपु सितासित रूपचित चित श्याम शरीर रंग रंग राते । केशव' कानन हीन सुनै सु कहे रस की रसना बिन बातें। नैन किंधौ कोउ अंतरयामि री जानति नाहिन बूझहिं ताते । दूरलौ दौरत है बिन पायन दूर दुरी दरसै मति जाते ॥ यद्यपि अांख की इन बातो का समाधान किया जा सकता है तथापि नेत्रों का अद्भुत वर्णन मन में घर करनेवाला है। अन्य उदाहरणों में भी यह बात पायी जाती है। विस्मय वा अद्भुत को सहज प्रवृत्ति जिज्ञासा है। इसका समावेश बौद्धिक भावनाओं में होता है। क्योंकि इसमें भावना को अपेक्षा बुद्धि को प्रबलता रहती है । इसमें विचार करना पड़ता है, तर्क-वितंक करना पड़ता है, ऊहापोह में उलझना पड़ता है और उलझन मिटाने के लिए मस्तिष्क को चक्कर काटना पड़ता है। आश्चर्य और विस्मय यद्यपि एकार्थवाची हैं, तथापि आश्चर्य से ऐसा ज्ञात होता है जैसे हृदय पर एक धक्का-सा लगा और क्षण भर में वह भाव जाता रहा। इसकी कई अवस्थाएँ होती हैं। विश्मय स्थायी-सा होता है। वैष्णवों ने चार प्रकार के अद्भुत माने हैं। पहला दृष्ट वह है जिसके देखने पर आश्चर्य प्रकट किया जाय। दूसरा श्रुत वह है जिसकी अलौकिता सुनने पर आश्चर्य प्रकट किया जाय। तीसरा संकीतित वह है जिसका संकीर्तन-वर्णन- कयन आश्चर्य रूप में किया जाय । और, चौथा अनुमति वह है जिसकी अनुमान द्वारा अद्भुतता प्रकट की जाय । अन्तिम दो के उदाहरण इस प्रकार के है- संकीतित- तुम कौन हो, क्या कर रहे हो, क्या तुम्हारा कर्म है ? कैसा समय, कैसी दशा, कैसा तुम्हारा धर्म है ? हे अनघ! क्या वह विज्ञता भी आज तुमने दूर की ? होती परीक्षा ताप मे ही स्वर्ण के सम शूर की। गुप्त अजुन की अधीरता पर श्रीकृष्ण को उक्ति है। इसमें अजुन के गुण का संकीर्तन है। इससे आश्चर्य की ध्वनि होती है ।