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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२९५

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२१० काव्यदर्पण करने की, इच्छा के साथ प्राप्ति की तथा ऐसे ही अन्यान्य विषयों की होती है। यदि अज्ञानी अपने ज्ञान का ढिंढोरा पीटे; डरपोक यदि शेरमार खाँ बनना चाहे, जाहिल अक्तमन्दी जाहिर करे ; कुटिल सरल बनने का ढोंग रचे तो भला किसको हँसी न आवेगी ! बौने, कुबड़े, टेड़े-मेढ़े व्यक्ति को देखकर हम इसीलिए हँसते हैं कि मनुष्य की प्राकृति से उसमें विपरीतता पायी जाती है । दुबले पति की मोटौ स्त्री, ठिगने पुरुष को लम्बो पत्नी को देखकर इसीसे हँसते हैं कि इन दोनों में विषमता है। इनका मेल नहीं खाता-बेजोड़ हैं। इसके अतिरिक्त हँसी के अन्य भी अनेक कारण हैं। जैसे कुरूप को सुरूप बनने की चेष्टा, ग्रामीणों को ग्रामीणता, बेवकूफ की बेवकूफी, हद से ज्यादा फैशन- परस्ती, बंदर भालू का तमाशा, अहम्मन्यों की अहग्मन्यता, नकल करना आदि। प्रायः ऐसे लोगों का मजाक उड़ाया जाता है, जिनके प्रति हम गुप्त रूप से घृणा रखते हैं । इस्त्र प्रकार उपहास करनेवाला अपने को दूसरे से अच्छा समझता है। हास्य का परपीड़न से अधिक सम्बन्ध है। उपहासास्पद जब झपता है तो हास के साथ उसकी दोनता से करुणा का भाव जग उठता है, सहानुभूति भी उमड़ पढ़ती है। कुछ हास ऐसा भी होता है जो झैपनेवाले को भी उसमें सम्मिलित कर देता है। संक्षेप में हास्य रस विकृत आकार, वचन, वेश, चेष्टा आदि से उत्पन्न होता है। यही कारण है कि अँगरेजों के हिन्दी बोलने पर, बन्दर के तमाशे पर विदूषक के शरीर, वेश-भूषण, आचरण श्रादि पर हँसी आती है। सत्रहवीं छाया हास्य के रूप-गुण हास एक सहज प्रवृत्ति है और है उपजनेवाली। यह एक प्रकार की क्रीड़ा प्रवृत्ति भी मानी जाती है। दो महीने के बच्चे में हँसी की झलक पायी जाती है। पांच महीने के बाद तो उसका स्पष्ट रूप देख पड़ता है। वह स्थिर वृत्ति है। असंगति से इसकी पुष्टि होती रहती है । यह आनन्द, श्रावेग, मात्सर्य, चापल्य आदि भावनाओं से भरी रहती है। इसीसे यह शरीर-मानस-प्रक्रिया है । 'स्पेंसर' को मत है कि शरीर-व्यापार में ज्ञानतन्तुओं को उत्साहशक्ति उच्छ्वसित हो उठती १ विकता कारवाग्वेषचेष्टा कुइकाभवेत् । -सा. ६० -