पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२९८

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बीभत्स रस स्थायी भाव-हास । हास स्थायी भाव और हास्यरस में नाममात्र का हो अन्तर है। हास हास्यरस का पूर्णतः प्रदर्शन नहीं करता। हास विनोद-भावना का एक रूप है। अतः, इसके स्थान पर विनोद को स्थायी भाव माना जाय तो किसी प्रकार की नीरसता नहीं आ सकती। ___हास्य दो प्रकार का होता है-श्रामस्थ और परस्थ । जब स्वयं हँसता है तो वह आत्मस्थ और दूसरे को हँसाता है तो वह परस्थ' है। इसमें दूसरा मत भी है। हास्य के विषय को देखने से जो हास्य होता है वह आत्मस्थ और दूसरे को हँसता देखकर जो हास्य होता है वह परस्थ है। प्रकारान्तर से इसके छह भेद होते है-(१) स्मित, (२) हासत, (३) विहसित, (४ अवहसित, (५) अपहसित और (६) अतिहसित । कुछ उदाहरण दिये जाते है। विन्ध्य के वासी उदासी तपोव्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे । गौतम तीय तरी 'तुलसी' सो कथा सुनि मे मुनिवृन्द सुखारे ॥ है हैं सिला सब चन्द्रमुखी परसे पद मंजुल कंज तिहारे । कीन्हीं भली रघुनायक जु करना करि कानन को पगु धारे ॥ काव्यगत रस-सामग्री-इसमें रामचन्द्रजी आलंबन विभाव हैं और गौतम की नारी का उद्धार उद्दीपन विभाव । मुनियों की कथा सुनना श्रादि अनुभाव और हर्ष, उत्सुकता, चंचलता श्रादि सचारी भाव हैं। इनसे परिपुष्ट होकर हास स्थायो भाव हास्यरस में परिणत होता है। रसिकगत रस-सामग्री-कवि बालंबन है और कवि का वर्णन उद्दीपन, मुख- विकास आदि अनुभाव और हर्ष, कंप आदि संचारी हैं। तुलसीदासजी का यह व्यंग्यात्मक उपहास उनके ही उपयुक्त है । अपने आराध्य देव के साथ ऐसा मामिक परिहास करने में वे ही समर्थ थे। पत्नीहोन मुनियों को चन्द्रमुखो-प्राप्ति के विचित्र सोत को उद्भावना से किसका मानस-कमल खिल म उठेगा! नीच हौं निकास हौ नराधम हौं नारकी हो, जैसे-तैसे तेरे हौं अनत अब कहाँ जांव । १. या स्वय हसति तदात्मस्थः । यदा तु परं हासयति तदा परस्थः।-नाट्य शास्त्र २. आत्मस्थो द्रष्टुरुत्पन्नो विभावेक्षणमात्रतः। हसन्तमपर दृष्ट्वा विभावश्चोपजायते । योजसो हास्यरसः तशः परजूस्थः परिकीर्तितः ॥ रसगगाधर