पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३००

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• वीभत्स रसे २१५ ऐसी है, जिससे मुंह मोड़ा नहीं जा सकता। यही कारण है कि रसों की पंक्ति में यह भी था बैठा है। वीभत्स के लिए यह आवश्यक नहीं कि मसान, शव, रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि आदि का ही वर्णन हो। ऐसी वस्तुएँ भी वीभत्सित हैं, जिनके देखने, स्मरण में लाने, कल्पना करने से हिचक हो, घृणा हो। ऐसी वस्तुएँ जिन्हें छूना न चाहें, जैसे कि सड़ी-गली चीजे, अस्पृश्य पदार्थ, गंदे देहातो सूअर आदि जीव; ऐसे खाद्य पदार्थ, जिनके खाने में सस्कारवश प्रवृत्ति न हो, जैसे मांस, मछली आदि ; ऐसे रोगी जिनके संसगं से अपने में रोग के संक्रमण की संभावना हो, जैसे कि यचमा के रोगी श्रादि वीभत्स रस के विभाव हो सकते हैं। जिस वस्तु से घृणा हो, वही वीभत्स का विषय बन जाती है। एक शारीरिक या वाह्य जुगुप्सा का उदाहरण देखे- लोहे के जेहरी लोहे की तेहरी लोहे की पाँव पयेजनी गाढ़ी। नाक में कौड़ी औ कान मैं कौड़ी त्यों कौड़िन की गजरा अति बाढ़ी, रूप मै वाको कहाँ लौ कहीं मनो नील के माठ में बोरि के काढ़ी। ईंट लिये बतराति भतार सौ भागिनी भौन मैं भूत-सी ठाढ़ी ॥ । शारीरिक जुगुप्सा से ही मानसिक जुगुप्सा भी होती है। इनका अन्योन्याश्रय सा है; पर मानसिक जुगुप्सा का महत्त्व अधिक है। मानसिक जुगुप्सा के कारण हो हम दुष्टों को दुष्टता पर उसकी भर्त्सना करते हैं और अन्यायो के अनीत पर उसका तिरस्कार करते हैं। दुगुणो से दूर रहने, अकार्य करने, दुःसंग त्यागने, अस्थान में न बैठने-उठने आदि में घृणा की भावना हो तो काम करती है। कवि के इस कथन में- हा! बन्धुओं के ही करों से बन्धुगण मारे गये ! हा! तात ने सुत, शिष्य से गुरु सहठ संहारे गये ! इच्छारहित भी वीर पाण्डव रत हुए रण में अहो ! कर्तव्य के वश विज्ञ जन क्या-क्या नहीं करते कहो!-गुप्त पाण्डव के 'इच्छा-रहित कहने का कारण क्या है ? वही घृणा; क्योंकि वे अपने गुरुजनो के घात आदि को घृणित कार्य समझते थे । यहाँ मानसिक घृणा का ही साम्राज्य है। ऐसा न होता तो अर्जुन श्रीकृष्ण से यह कैसे कहते कि महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस संसार मे भीख मांगकर खाने को हो अच्छा समझता हूँ। कारण, गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अथं और कामरूप भोगों को ही तो भोगूगा।' १ गुरुमहत्वा हि महानुभावान् श्रेपो भोक्तुं भक्ष्यमपीह लोके । हत्याकामांस्तु गुरुनिदैव भुजीय भोगाधिरप्रदिन्यात् ।। गीता