पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३०२

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३२७ 'वीभत्स-रस-सामग्री वीभत्स रस के उदाहरण हैं, जो भतृहरि के वैराग्य को ही पुष्ट करते है। प्रसंगतः किसी-न-किसी प्रकार का वीभत्स मुख्य रस का सहायक होकर ही आया है। स्फुट पद्यों में भी वीभत्स रस भाव के रूप में आता है । जैसे, आवत गलानि जो बखान करौं ज्यादा वह मादा मलमूत और मज्जा की सलीती है। कहै 'पदमाकर' जरा तो जाग भीजी तब छोजी दिन-रैन जैसे रेन ही की भीती है। सीतापति राम में सनेह जदि पूरो कियो तौ-तौ दिव्य देह जमजातना सो जीती हैं। रीती रामनामतें रही जो बिना काम वह खारिज खराब हाल खाल की खलीती है। यहाँ शरीर को वीभत्सता वणित है । पर वह रामविषयक रति का हो पोषक है । अतः, यहाँ जुगुप्पा स्थायी न होकर संचारी है। ऐसे स्थानों को जुगुप्सा 'विवेकजा' होतो है ; क्योंकि विवेकी-ज्ञानी सांसारिक पदार्थों को, शरीर, स्त्री, सम्पदा आदि को, घृणा को दृष्टि से जो देखते हैं वह वैराग्य को उद्दीपित करती है। दूसरी जुगुप्सा 'प्रायिको' होती है, जिसमें घृणित पदार्थों का वर्णन होता है। अधिकांश उदाहरण इसी भेद के दिये जाते हैं। बीसवीं छाया वीभत्स-रस-सामग्री घृणित वस्तु के देखने या सुनने से जहाँ घृणा या जुगुप्सा का भाव परिपुष्ट हो वहाँ वीभत्स रस होता है। बालेवन विभाव-श्मशान, शव, चर्बी, सड़ा मांस, रुधिर, मलमूत्र, दुर्गन्ध- द्रव्य, वृणोत्पादक वस्तुं और विचार आदि। उद्दीपन विभाव--गीघों का मांस नोचना, मांसभक्षी जीवों का मांसाथ युद्ध, कीड़े-मकोड़ों का बिलबिलाना, पाहत आत्मीय का छटपटना, कुत्सित रंग- रूप आदि। बंचारी भाव-आवेग, मोह, व्याधि, जड़ता, चिन्ता, वैवर्य, उन्माद, निर्वेद, ग्लानि, दैन्य आदि। स्थायी भाव-जूगुप्क्षा। गोल कपोल पलट कर सहसा बने भिड़ो के छत्तों से। हिलने लगे उष्ण श्वाँसों से ओठ लपालप लत्तों से ।।