पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३०३

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२१८ काव्यदपण कुन्द कली से दांत हो गये बढ़ वराह को डाढ़ों से। विकृत भयानक और रौद्र रस प्रकटे पूरी बाढ़ों से ॥ जहाँ लाल साड़ी थी तन में बना चर्म का चीर वहाँ । हुए अस्थियों के आभूषण ये मणिमुक्ता हीर जहाँ ॥ कंधों पर के बड़े बाल वे बने अहो आतों के जाल । फूलों की वह वरमाला भी हुई मुण्डमाला सुविशाल ॥-गुप्त काव्यगत रस-सामग्रो-शूर्पणखा की कामलिप्सा बालबन, भिड़ों के छत्तों- से कपोलों का हो जाना आदि उद्दीपन, उनकी भयानक चेष्टाएँ अनुभाव और मोह, वैवण्य, ग्लानि आदि संचारी भाव हैं। इनसे परितुष्ट जुगुप्सा भाव बीभत्स रस में परिणत होता है। रसिकगत रस-सामग्री-शूर्पणखा आलंबन, वर्णन उद्दीपन, नाक-भौं सिकोड़ना, थू-थू करना अनुभाव और मोह आदि संचारी हैं। सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत । खींचत जीहिं स्यार अतिहिं आनन्द उर धारत ॥ गीध जांघ को खोदि खोदि के मॉस उपारत । स्वान ऑगुरनि काटि-काटि के खात बिदारत ॥ बहु चील नोच ले जात नुच मोद भर्यो सबको हियो। मनु ब्रह्म भोज जजिमान कोउ आज भिखारिन कह दियो ।-हरिश्चंद्र मुदौं की हड्डी, मांस, चमड़ा आदि ( श्मशान का दृश्य ) बालंबन, शव के अंगों का काक श्रादि के द्वारा नोचना, खोदना, फाड़ना, खाना आदि उद्दीपन, श्मशान का दृश्य देखकर राजा का इनके बारे में सोचना अनुभाव और मोह, स्मृति ग्लानि आदि संचारी तथा राजा के मन में उठनेवाला घृणा का भाव स्थायी है। इनसे वीभत्स रस व्यंग्य है। मौड़े मुख लार बहे आखिन ढीढ़ राधि- कान मे सिनक रेंट भीतन पै डार देति । खुर्र खुरं खरचि खुजावै मटुका सो पेट दृढ़ी लौह लटकते कुचन को उधार देति ॥ लौटि लौटि चीन घाँघरी को बार बार फिरि बीनि बौनि डोंगर नखन धरि मारि देत । लूगरा गॅधात चढ़ी चीकट सो गात मुख घौवै ना अन्हात प्यारी फूहड़ बहार देति ॥-शंकर फूहड़ नारी श्रालंबन, लार बहाना, बीचड़ निकलना उद्दीपन, नेय खिड़ककर मौत पर डालना, अनुभाव, वैवयं, दैन्य श्रादि संचारी है।