पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३०८

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भक्तिरस बन वितान रवि ससि दिया फल भख सलिल प्रवाह । अवनि सेन पंखा पवन भब न कछू परवाह ।-प्राचीन यहां लौकिक सुख की क्षणभंगुरता आलंबन, प्राकृतिक सुख को बिना प्रयास ही प्राप्त कर लेना आदि उद्दीपन, वक्ता को निःस्पृहता-सूचक उक्ति तथा चिन्ता- विहीन होना अनुभाव और धृति, मति, औत्सुक्य, हर्ष श्रादि संचारी हैं। इनसे परिपुष्ट निर्वेद से शान्त रस ध्वनित होता है। जमुना पुलिन कुज गहवर को कोकिल ह म कूक मचाऊँ । पद पंकज प्रिय लाल मधुप ह मधुरे-मधुरे गूज सुनाऊँ । कुकुर ह बनबीथिन डोलौं बचे सीथ संतन के पाऊँ। 'ललित किशोरी' आस यही मम बजरज तजि छिन अनत न जाऊँ ॥ इस प्रकार के वर्णन में देव-विषयक रति भाव को ही प्रधानता रहती है, थान्त रस की नहीं। तेईसवीं छाया भक्तिरस कुछ प्राचीन श्राचार्यों ने भक्ति की सरसता की ओर ध्यान नहीं दिया। जिन्होंने ध्यान दिया उन्होंने भावों में इसका अन्तर्भाव कर दिया। वे भाव हैं स्मृति, मात, धृति और उत्साह । सार यह कि शान्त रस में हो यह प्रविष्ट है। रसगंगाधरकार की शंका का समाधान यह है- भगवद्भक्त भागवत आदि के श्रवण से जो भक्ति रस का अनुभव करते हैं यह उपेक्षणीय नहीं। उस रस का आलंबन भगवान पुराणादि-श्रवण उद्दीपन, रोमांच आदि अनुभाव तथा हर्ष श्रादि संचारी हैं। स्थायी है भगवद्विषयक प्रेमरूप भक्ति । इसका शान्त में समावेश नहीं हो सकता। कारण यह कि प्रेम निर्वेद वा वैराग्य के विरुद्ध है और वैराग्य ही शान्तरस का स्थायी भाव है। इसका उत्तर वे देते हैं कि देवता-आदि-विषयक रति भाव है, रस-नहीं। रति ही भक्ति है। फिर वे अपने इस प्रश्न का कि भगवद्विषयक भक्ति को ही क्यों न रस मान लिया जाय और नायिकाविषयक रति को भाव । क्योंकि, इनमें तो ऐसी कोई युक्ति नहीं कि १ अतएव ईश्वर-प्राणिधान-विषये भक्ति श्रद्धा स्मुतिमतिधृत्युत्साहानुपविष्टेभ्यो न्यथैवाव मिति न तयोः पृथग्रसत्वेन गणनम् ।-नास्मशान २ रनि वादिविषयाव्यभिचारो तयाजितः । भावः प्रोक्तः """!-कामप्रकाश