चौथी छाया अभिधामूलक ( विवक्षितान्यपरवाच्य ) ध्वनि जिसके मूल में अभिधा अर्थात् वाच्यार्थ-सम्बन्ध हो उसे अभिधा- मूल ध्वनि कहते हैं। अभिधामूल को विवक्षितान्यपरवाच्य कहा गया है; क्योकि इसमें वाच्यार्थ वांछनीय होकर अन्य पर अर्थात् व्यंग्याथ का बोधक होता है। इसमें वाच्यार्थ का न तो दूसरे अर्थ में संक्रमण होता है और न सर्वथा तिरस्कार, बल्कि वह विवक्षित रहता है। इसके भी दो भेद हैं-(१) असंलक्ष्यक्रम ध्वनि और (२) संलक्ष्यक्रम ध्वनि । पहले में पौर्वापर्य का ज्ञान नही रहता; मगर दूसरे में रहता है। असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य ( रसादि) ध्वनि जिस व्यंग्याथ का क्रम लक्षित नहीं होता वह असंलक्ष्यक्रम ध्वनि होती है। अभिप्राय यह कि व्यंग्यार्थ-प्रतीति में पौर्वापर्य का-आगे-पीछे का ज्ञान नही रहता कि कब वाच्यार्थ का बोध हुआ और कब व्यंग्याथ का। दोनों का एक साथ हो बोध होता है अर्थात् पहले विभाव के साथ, फिर अनुभाव के साथ और फिर व्यभिचारी के साथ स्थायी को प्रतीति का क्रम रहता हुआ भी शीघ्रता के कारण जहाँ प्रतीति नहीं होता वहाँ असंलक्ष्यक्रम ध्वनि होती है। इसे ही रसध्वनि भी कहते हैं, क्योंकि असंलदाक्रम में व्यग्य रूप से रस, भाव, रसाभास आदि हो ध्वनित होते हैं। इसी प्रकार रस-ध्वनि के जो रस, भाव, रसाभास, भावाभास आदि भेद होते हैं और उनके प्रास्वादन की अनुभूति के विभाव, अनुभाव, संचारी भाव आदि जो कारण होते हैं, उनका पौळपर्य-ज्ञान प्रतीतिकाल में बिल्कुल दुष्कर होता है। निम्नलिखित उदाहरण से रसोत्पत्ति के प्रकार को तथा असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य ध्वनि को स्पष्ट समझ लीजिये- पलंग पीठ तजि गोद हिंडोरा, सिय न दीन्ह पग अवनि कठोरा । जिअन-भूरि जिमि जुगवत रहऊ, दीप बाति नहिं टारन कहऊँ। - सो सिय चलनि चहति बन साथा, आयसु काह होइ रघुनाथा । -तुलसीदास राम के वन-गमन के समय नवपरिणीता वधू सीता ने अपनी सास कौशल्या से प्राग्रह किया कि मैं भी पति के साथ वन में जाऊँगी। प्राय के समान प्यासी
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