है कि कविता का ह्रास हो रहा है । गेटे का कहना है, "जिनके कान कविता सुनने को उत्सुक न हों वे बर्बर है, वे कोई क्यो न हो। शुक्लजी के शब्दों मे, “अन्तः प्रकृति में मनुष्यता को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्य- जाति के साथ लगी चली आ रही है और चली चलेगी, जानवरो को इसको जरूरत नहीं।" संगीत-साहित्य-कला-विहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ॥ कविता और चेतन-व्यापार मानवीकरण की बात नवीन नहीं, पुरानी से पुरानी है ; पाश्चात्य साहित्य की देन नहीं। पतंजलि ने एक स्थान पर लिखा है—“पत्थरो, सुनो" । आनन्दवर्धन कहते हैं, "अचेतन विषय भी अर्थात् प्राकृतिक पदार्थ आदि भी यथायोग्य समुचित रस-भावों से अथवा चेतनवृत्तान्त की योजना से ऐसा कभी नहीं हो सकता कि वह रसाङ्गता को प्राप्त न करे।” आगे वह एक प्रकार से कवियों को छूट दे देते है कि “सुकवि अपने काव्य मे स्वतन्त्र होकर इच्छानुसार अचेतन विषयों को चेतन के समान और चेतन विषयों को अचेतन के समान व्यवहार मे लाते है ।"3 ___ भवभूति एक स्थान पर लिखते है-"पहाड़ भी रो देता है और वज्र का हृदय भी फट जाता है । संस्कृत-काव्यों में ऐसे ही मानवीकरण के अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। प्राचीन हिन्दी कविता में भी इसका अभाव नहीं है । जैसे- तम लोम मोह अहंकार मद क्रोध बोध रिपु मारा। अति करहिं उपद्रव नाथा मरदह मोहि जानि अनाथा।-तुलसी लोभ आदि का उपद्रव करना मानवीकरण है और अचेतन में चेतनता की स्थापना है। ऐसे अनेक लाक्षणिक प्रयोग होते है, जहाँ चेतनता के आरोप का भ्रम हो जाता है; पर वहाँ उसकी यथार्थता नहीं होती । जैसे, 1 H: who has no ear for poetry is a barbarien be he wahonnary. s. '. शेणोतं यावाणः । महाभाष्य , . ३ भावानचेतानपि चेतनयत् चेतदानचेतनवत्.। व्यवहारयति यथेष्टं सुकवि काव्ये स्वंतत्वृतया ध्वन्यालोका ! - ४.अपि समारोवता शिवस्य पदम्। उ०० चरित
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