पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रहल कम वन के मैद . २ पदांशगत असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य चिरदग्ध दुखी यह वसुधा, आलोक मांगती तब भी। तुम तुहिन बरस दो कन कन, यह पगली सोये अब भी ॥-प्रसाद यहाँ 'तब भी' पद के 'भी' पदांश में असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य है। इतनी यातना झेलने पर भी पगलो 'आलोक' माँगतो है ; क्योंकि उसी 'आलोक' के कारण यह युग-युग से दग्ध हुई है, और फिर वही चाहती है । इसलिये उसपर दया के तुहिन- कण बरसा दो, जिससे पगली कुछ सो ले । इस वाच्यार्थ में 'भी' पद्यांश द्वारा करुण रस घनित होता है । कवि उसपर दया चाहता है-उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करता है। ३ वाक्यगत असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य कंधों पर के बड़े बाल वे बने अहो ! आँतों के जाल । फलों को वह वरमाला भी हुई मुण्डमाला सुविशाल ॥ गोल कपोल पलटकर सहसा, बने भिड़ों के छत्तों से। हिलने लगे उष्ग सॉसों से ओठ लपाल र लतों से ॥--गुप्तजी शूपणखा जब अपने प्रेममय मायाजाल से निराश हो गयो, तब उसने जो उग्र रूप धारण किया उसका यह वर्णन है। यहां प्रांतों के जाल के बाल बने, भिड़ों के बचों से गाल बने श्रादि, प्रत्येक वाक्य से भयानकता की ध्वनि होती है । इसलिये यहाँ वाक्यगत रस-ध्वनि है । ४ रचनागत असंलक्ष्यक्रम ध्वनि रचना का अर्थ विशिष्ट पद-संघटन वा ग्रन्थन है जागत ओज मनोज के परसि पिया के गात । पापर होत पुरैन के चन्दन पंकिल पात ॥-मतिराम प्रिय के गात्र का स्पर्श करके कामदेव की ज्वाना के कारण चन्दनलिताद्म- पत्र मी पापड़ हो जाते हैं । इस वाच्यार्थ-बोध के साथ ही विप्रलभ शृङ्गार धनित होता है । यह घनि किसी एक पद से या किसी एक वाक्य से ध्वनित न होकर रसानुकून असमस्त पदोंवाली साधारण रचना द्वारा होती है। अतः, यहाँ रचनागत असंलक्ष्यक्रम ध्वनि है। ५ वर्णगतं असंलक्ष्यक्रम ध्वनि कविता के अनेक वर्गों से भी रसध्वनि होती है । जैसे- रस सिंगार मंजनु किये कंजनु भंजनु दैन । अंजन रंजनु हूँ बिना खंजनु गंजन नैन ॥-बिहारी