पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३३३

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कषि प्रौदोक्ति-मात्र सिद्ध Pre ३ वाक्यगत स्वतःसंभवी अर्थशक्तिमूलक अलंकार से वस्तु व्यंग्य ज्ञान-योग से हमें हमारा यही वियोग भला है। जिसमें आकृति, प्रकृति, रूप, गुण, नाट्य, कवित्व, कला है।-गुप्त यहाँ इन पक्तियों में अनेक गुणों के कारण वियोग को ज्ञान-योग से कवि ने श्रेष्ठ बतलाया है। अतः, यहाँ भी व्यतिरेकालंकार है। इस अलंकार से वियोग को मनोरमता और सरसता तथा योग की शुष्कता वस्तु व्यंजित होती है। अतः, यहाँ अलंकार से वस्तु व्यंग्य है। सर पड़ता जीवन -डाली से मैं पतझड़ का-सा जीर्ण पात । केवल-केवल जग-आँगन में लाने फिर से मधु का प्रभात ॥-पन्त यहाँ उपमा और रूपक की संसृष्टि द्वारा 'मरण नवजीवन लाया है। क्योंकि पुनर्जन्म निश्चित है। यह वस्तुरूप व्यंग्य वाक्य से निकलता है। अतः, यहाँ भी वाक्यगत अलंकार से वस्तु वनित है। ४ पदगत स्वतः संभवी अर्थशक्तिमूलक 'अलंकार में अलंकार व्यंग्य दमकत दरप परि दीप-सिखा-दुति देह । वह वृढ़ इक दिसि दिपत, यह मृदु दस दिसनि सनेह ॥ दर्पण का दवं दूर करके दीप-शिखा द्यु तिवाली देह दमकती है अर्थात् दीप्ति पैला रही है । वह कठोर दर्पण एक दिशा में हो चमकता है, पर वह कोमल शरीर दूसरी दिशात्रों में भी चमकता है। यहाँ 'दीप-शिखादुर्ति' में उपमालकार है और यही उत्तराद्ध में आये हुए व्यतिरेकालंकार का द्योतक है। क्योंकि द्य ति को दोप- शिखा के औपम्य से न बांधा जाता तो दर्पण से इसमें विशेषता न पातौ और न व्यतिरेक को प्रश्रय मिलता। -दु० ला. भार्गव आठवीं छाया कवि-प्रौढोक्ति-मात्र-सिद्ध १ पदगत कवि-प्रौढोक्ति-मात्र-सिद्ध वस्तु से वस्तुध्वनि जो वस्तु केवल कवियों की कल्पना-मात्र से ही सिद्ध होती हो, व्यावहारिक रूप से उसकी प्रत्यक्ष सिद्धि न हो, उसीको कवि प्रौदौक्ति मात्र-सिद्ध कहते हैं। जैसे, कामदेव के फूलों का बाण होना, यश का उज्जवल होना, कलंक को काला तथा राग को लाल मानना, विरह से जलना, मधु का सागर लहराना श्रादि । जाता मिलिन्द देकर अन्तिम अधीर चुम्बन लोहितनयन कुसुम को । कन्दनविनीति कातर आरक्त पद्मलोचन लखि कौन शोक तुमको ॥ -पारसी