पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३४३

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गुणीभूत व्यंग्य ४ अस्फुट व्यंग्य जहाँ व्यंग्य स्फुट रीति से नहीं समझा जाता हो, वहाँ अस्फुट व्यंग्य होता है। अर्थात् जहाँ व्यंग्य अच्छी तरह सहृदयों को भी न प्रतीत होता हो और बहुत माथापच्ची करने-दिमाग लड़ाने पर ही समझ में श्रा सकता हो, वह अम्फुट व्यग्य है । जैसे,- खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगंध के प्रथम वसंत में गुच्छ • गुच्छ ।-निराला यहाँ यौवन के पहले चरण में प्रेयसी की नयी-नयी अभिलाषाएँ उदित हुई, ऐसा व्यंग्याथ-बोध कठिनता से होता है । व्यंग्य यहाँ अस्फुट है-बहुत गूढ है । ५संदिग्ध-प्राधान्य व्यंग्य वाच्यार्थ और व्यंग्यार्थ दोनों में किसकी प्रधानता है इस बात का जहाँ संदेह रहता है वहाँ संदिग्ध-प्राधान्य व्यंग्य होता है। थके नयन रघुपति छबि देखो। पलकन हूँ परिहरी निमेखी। अधिक सनेह देह भई भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।-तु० रामचन्द्र को छवि देखते-देखते जनको अत्यन्त स्नेह से इस प्रकार विभोर हो गयीं जैसे शरद् के चन्द्रमों को देखकर चकोरी विभोर हो जाती है। यहाँ भी वाच्याथं ( उपमागत ) का चमत्कार अधिक है या 'देह भइ भोरो' से व्यंग्यमान जड़ता संचारी भाव का। इसमें सन्देह रहने के कारण हो यह उदाहरण संदिग्ध- प्राधान्य का है। ६ तुल्यप्राधान्य व्यंग्य जहाँ व्यंग्यार्थ और वाच्यार्थ दोनों की प्रधानता तुल्य हो, समान ही प्रतीत होती हो वहाँ तुल्यप्राधान्य व्यंग्य होता है। आज बचपन का कोमल गात, जरा का पीला पात ! चार दिन सुखद चांदनी रात, और फिर अंधकार प्रज्ञात ॥-पत बचपन का कोमल कलेवर बुढ़ापे में पोले पात का-सा असुन्दर और निष्प्रभ हो जाता है। चांदनी रात भी कुछ ही दिनों के लिए होती है। फिर तो अंधकार हो अधकार है। इससे यह व्यंग्याथ निकलता है कि संसार में सब-के-सव दिन एक समान नहीं व्यतीत होते । यहाँ वाच्यार्थ और व्यंग्याथ को प्रधानता तुल्य है। ७ काकाक्षिप्त व्यंग्य जहाँ काकु द्वारा आक्षिप्त होकर व्यंग्य अवगत होता है वहाँ गुणी भुत काकाक्षिप्त होता है।