पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३६

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जीवनमात्र में समान है। मनोमय कोष मानवमात्र मे है। किन्तु जो शिक्षित है, सहृदय है, वे पशुमानवसुलभ प्रथम तीन कोषों को परिपूर्णता से ही अन्न-पान-भोग आदि से ही संतुष्ट नहीं हो जाते। उनके विज्ञानमय कोष के लिए चाहिये शास्त्र, विज्ञान, दर्शन आदि। ___ आनन्दमय कोष की महत्ता सर्वोपरि है। संगीत, साहित्य और अन्य ललित कलाये आनन्दजनक है। विशेषतः आत्मा की श्रेयमयी प्रेय रचना-कविता । कारण यह कि सुख-दुःखात्मक संसार के सभी दुःख भी काव्य-लोक मे कवि-प्रतिभा से सुखदायक ही हो जाते है ; उनसे आनन्द ही आनन्द उपलब्ध होता है। “यही परमानन्द-लाभ काव्य का परम प्रयोजन है"।' शेली ने कहा कि “काव्य सदैव आनन्द-परिपूर्ण है"। यह आनन्द साधारण आनन्द नहीं; लौकिक आनन्द नहीं ; अलौकिक आनन्द है। "इसे ब्रह्मानन्द-सहोदर कहा गया है"।3 कारण यह कि हम रजोगुण तथा तमोगुण में मलिन अावरण से विमुक्त चित्त में इस लोकोत्तर आनन्द का उपभोग करते हैं। बूचर ने भी कहा है कि "आनन्द का प्रत्येक क्षण स्वतः संपूर्ण है और परम आनन्द के आदर्श लोक से उसका सम्बन्ध है”। आनन्द और रस आचार्यों ने कहीं अानन्द को आह्लाद की और कहीं निवृति की संज्ञा दी है ; किन्तु काव्य-शास्त्र में रस शब्द से ही इसकी बड़ी प्रसिद्धि है ।५ हेमचन्द का कहना है कि "आनन्द रसास्वाद से उत्पन्न होता है । उस समय अन्य कोई वेद्य विषय नहीं रह जाता। ब्रह्मास्वाद के समान प्रीति ही आनन्द" है।६ आनन्द (प्लेज़र ) रसात्मक ( एमोशनल ) भी हो सकता है और विचारात्मक ( इण्टेलेक्चुअल) भी; पर रसात्मक आनन्द-जैसा विचारात्मक आनन्द नहीं हो सकता। बूचर ने लिखा है कि "प्रत्येक सुकुमार कला की भाँति काव्य का उद्देश्य भी भावोत्थित १ सधः परनिवृतये" "1 काव्यप्रकाश 2 Poetry is ever accompanied with pleasure. ३ ब्रह्मास्वादसोदरः । साहित्यदर्पण 4 Each is a moment of joy cemplete in itself, and be- longs to the ideal sphere of supreme happiness. ५ (क) रसः स एव स्वायत्वात् । (ख) सर्वोऽपि रसनाद्रसः। ६ सद्यो रसास्वादजन्मा निरस्तवेद्यान्तरा ब्रह्मास्वादसदृशी प्रीतिरानन्दः | काव्यानुशासन