पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३७

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आनंद की विशुद्ध तथा समुच्च प्रानन्द की सृष्टि करना है"।' इसमे 'प्लेजर और 'डिलाइट' दो शब्द आये है। आनन्द के लिए वड्सवर्थ ने 'पैशन' (भाव) शब्द का और कीट्स ने 'जॉय' का प्रयोग किया है । क्रोचे ने काव्यानन्द के लिए 'प्योर पोएटिक जॉय' शब्द का प्रयोग किया है, जो उचित कहा जा सकता है। यथर्थता यह है कि आस्वादन, चर्वण, रसन शब्द रस चखने, आनन्द लूटने का भाव ही व्यक्त करते है, जिससे इन सबों की सामान्यतः एकात्मकता प्रतीत होती है। रसात्मक काव्य-लक्षण "आत्मचैतन्य का प्रकाश ही रस है।'२ अर्थात् सत्वगुण-प्रधान चित्त की भावतन्मयता की अवस्था में जब रति आदि स्थायी भावो से युक्त चित्त का साधारणी- करण के परिमाण-स्वरूप आवरण हट जाता है तब चित्त वा चैतन्य ही रस-रूप में प्रकाशित होता है। ___"रस ही वह है।" 'रस के बिना किसी विषय का प्रवर्तन नही होता।" "रस-शून्य कोई काव्य नही होता"। इन वाक्यो को लक्ष्य करके हो विश्वनाथ ने "रसात्मक वाक्य काव्य होता है",४ यह लक्षण बनाया । पर पण्डितराज ने इसपर यह आपत्ति की कि ऐसा होने से "वस्तु-प्रधान और अलंकार-प्रधान रचना काव्य नहीं कही जायगी । यदि खींच-खाँच कर इनमे भी रस का सम्बन्ध जोड़ा जय तो कौन-सा वाक्य सरस नहीं हो सकबा"। इससे यह लक्षण अव्याप्तिदोषपूर्ण है । दर्पणकार ने यह कहकर कि "गुणाभिव्यञ्जक शब्दार्थ होने, निर्दोष होने तथा अलंकार की अधिकता होने से नीरस पद्यो को भी जो कविता कहते हैं वह सरस कायों के सादृश्य के कारण। वह गौण काव्य हो साता है। पर यह नवीनों को मान्य नहीं है ; क्योकि वे कहते है कि जिसमे कल्पना ही उड़ान है, बुद्धि का विलास है, कला को कुशलता है, शब्द और अर्थ की सुन्दर योजना है, ऐसी रचना को कविता न कहना बुद्धिमानी नहीं है। कविता के लक्षण मे आल्डन कहता है कि १ The object of poetry, as of all the fine arts, is to pro. duce emotional delight, a pure and elevated pleasure. २ रत्याचवच्छिन्ना भग्नावरणाचिदेव रसः । रसगंगाधर ३ रसो चै सः । श्रुतिः नहि रसाइते कश्चिदर्थः प्रवर्तते । वाट्यशास्त्र ४ नहि तच्छ्न्यं काव्यं किञ्चिदस्ति । ध्यन्यालोक . ५ वाक्यं रसात्मकं काव्यम् । रसगंगाधर ११ साहित्य का , ... - 21 : .. -