यैलो २८३ प्रलापक शैली में भी लिखे जाते हैं। ऐसे गीतों की भाषा प्रवाह-पूर्ण, सरस, मधुर और प्रभादगुण-सम्पन्न होनी चाहिए। आजकल को अधिकांश मुक्त छन्द या स्वतन्त्र छन्द की कविताएँ गद्य-गीत का आकार धारण कर लेती हैं, जिन्हें पद्याभास वा वृत्तगन्धि गद्य कहा जा सकता है। उन काले अछोर खेतों में हलवाहों के बालकगण कुछ खेल रहे है। पहली झड़ियों से निर्मित कर्वम की गर्दै झल रहे हैं ! वे बालक हैं, वे भी कर्दम मिट्टी के ही राज-दुलारे; बादल पहले-पहले बरसे बचे-खुचे छितरे विशिहारे । नये कलाकारों को इसे कविता कहना और छन्दोबद्ध बताना शोभा नहीं देता। गद्य यदि अलौकिक आनन्द देनेवाला हुआ तो पद्य के समान वह भी गद्यकाव्य या गद्यगीत कहलाने का अधिकारी है । ग्यारहवीं छाया शैली रोति या वृत्ति का आधुनिक नाम शैली ( style) है। किसी वर्णनीय विषय के स्वरूप को खड़ा करने के लिए उपयुक्त शब्दों का चुनाव और उनको योजना को शैली कहते हैं। पद्यात्मक साहित्य तीन-चार हो शैलियों में सीमित है; पर गद्यात्मक शैलियों का अन्त नहीं ; क्योंकि इनका संबंध सोचने-विचारने और व्यक्त करने को विशेषता से है। इससे कहा जाता है कि मनुष्य शैली है और शैली मनुष्य ( Style is the man and man is the style)। शैली के चार गुण है-ओजस्विता, सजीवता, प्रौढ़ता और प्रभावशालिता। सुन्दर शैली का प्रथम उपादान है-शब्दों का सुसंचय और सुप्रयोग । इसके लिए आवश्यक है शब्दों के अभिधेयार्थं को यथार्थता का, शब्दों की भावपोषकता का, शब्दों की अनेकार्थता का, शब्दमैत्री का और अर्थ-विशेष में शब्दों के प्रयोग का ज्ञान । बारांश यह कि शैली के लिए शब्द शुद्ध हों; यथार्थता के द्योतक हों, प्रचलित तथा उपयुक्त हों और असंदिग्ध हो । दूसरा उपादान है वाक्य-विन्यास । शैली का आधार वाक्य-रचना हो है।
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