पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३६९

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२८६ काव्यदर्पण सत्य-स्वरूप नहीं है । मनुष्य मनुष्य है-अपनी अमित भावनाओं और वासनाओं में । इस तरह जीवन का पूर्ण चित्र लाने के लिए मानव के सौमित बाहरी रूप और असीमित भावनाओं, कल्पनाओं के अन्तर्जीवन का भी परिचय देना होता है। काव्य इसी सत्य का प्रतिष्ठाता है । उसका विषय मानव-चरित्र और मानव हृदय है। संसार की अन्य कोई प्रक्रिया, अन्य कोई निपुणता सत्य के ऐसे पूर्ण स्वरूप को उपस्थित नही कर सकती, यह काव्य का ही काम है। हमारे सामने जीवन के दो रूप पाते हैं-एक अपनी पार्थिव श्रावश्यकताओं से पीड़ित, दूसरा श्रास्मिक प्रकाश के आवेग से श्राकुल । काव्य हमारे स्थूल और सूक्ष्म अन्तर्जीवन के समन्वय से पूर्ण सत्य का प्रतिष्ठाता है। वाह्यजगत् और अन्तर्जगत् के प्रकाश में अन्तर है। जो प्रत्यक्ष है, उसे हम स्पष्ट प्रकृति में देखते हैं, किन्तु प्राकृत होने पर भी काव्य की बात प्रत्यक्ष नहीं हुआ करती। काव्य को इसी प्रत्यक्षता के लिए नाना उपायों का सहरा लेना पड़ता है। ____ अपना सुख-दुख दूसरों को अनुभव कराना सचमुच कठिन है। यहाँ काव्य को बनावट से काम लेना पड़ता है; किन्तु ऐसी कृत्रिमता सत्य की प्रतिष्ठा के लिए हो की जाती है। जिस प्रकार प्रकृति की प्रत्यक्ष वस्तुएँ सत्य हैं, उसी प्रकार हमारा सुख-दुख, प्रिय-अप्रिय लगना, अच्छा-बुरा लगना भी सत्य है; किन्तु इस सत्य को हम भाव में लाते है। क्योंकि यह प्रत्यक्ष नहीं है। ज्ञान और भाव में अन्तर यह है कि ज्ञान को प्रमाणित करना पड़ता है, भाव को संचारित । इसलिए, काव्य इस प्रत्यक्षता के अभाव की पूर्ति के लिए चित्र भाव को रूप देता है, संगीत गति | काव्य में चित्रों की कमी नहीं। इन चित्रों द्वारा अप्रत्यक्ष भाव रूप पा जाते हैं। इस प्रकार काव्य हमारे अश्व मन का, जो सत्य है, बाहरी प्रकाश है। वह अपनी वस्तु को समग्र विश्व को बना देता है और उसको नश्वरता को चिरकाल के लिए अमर कर देता है । रवीन्द्रनाथ ने कहा है-"जानते-अनजानते मैंने ऐसा बहुत कुछ किया होगा, जो असत्य है । परन्तु, मैने अपनी कविताओं में कभी झूठा प्रलाप नहीं किया, उनमें मेरे अन्तर का गम्भीर सत्य ही सन्निवेशित हुआ है।" प्राकृत सत्य से काव्य का सत्य कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता। कालिदास का को उदाहरण लिया जाय। उन्होंने रति-विलाप का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है। शिव का तीसरा नेत्र खुल जाने से मदन भस्म हो जाता है और रति विलाप करती है। किसीको यह ज्ञात नहीं कि रति ने सचमुच ही कैसे विलाप किया था। दुःख की चरम अवस्था में शोक के दो रूप हो सकते हैं-जार-बेजार रोना और मौन, शुष्क नेत्रों से देखते रहना। रति ने सचमुच कैसे शोक किया था, भगवान जाने, उसका कोई सानी नहीं। रति के विलाप से बढ़कर अज का विलाप है।