पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३७५

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पन्द्रहवीं छाया नाटक के भेद (क ) स्वरूप के अनुसार (प्राचीन) रूपक के दो भेद होते हैं-एक रूपक या नाटक और दूसरा उप-रूपक । नाटक के दस भेद होते हैं-१ नाटक, २ प्रकरण, ३ भाण, ४ च्यायोग, ५ समवकार, ६ डिम, ७ ईहामृग, ८ अङ्क, ६ वीथी और १० प्रहसन । नाटक अभिनय-प्रधान वह दृश्य काव्य है, जिसमें रूपक के पूर्ण लक्षण हों। इसमें ५ से १० अंक तक हो सकते हैं। भारतीय नाटक प्रायः सुखान्त ही होते हैं। नाटक के समान ही प्रकरण होता है। जैसे कि 'मृच्छकटिक' का अनुवाद हिन्दी में सुलभ है। भाण का मुख्य उद्देश्य परिहासपूण धूत ता का प्रदर्शन है। इसमें एक ही व्यक्ति प्रश्नरूप में कुछ कहता है और स्वयं उत्तर देता है । 'वैदिक हिसा हिसा न भवति' भाण ही है। व्यायोग वीररस-प्रधान रूपक है। हिन्दी में भी 'निर्भयभीम-व्यायोग' है। समवकार तीन अंक का वीररस-प्रधान रूपक होता है। डिम भयानक-रम-प्रधान चार अंक का होता है। ईहामृग नायक प्रतिनायकवाला रूपक है। ८ अंक करुणरस-प्रधान रूपक है । ६ वीथी भाग का-सा हो नाटक होता है, जिसमें शृङ्गार रस के साथ करुण-रस भी होता है । प्रहसन हास्यरस-प्रधान रूपक है । हिन्दी में प्रहसनों की अधिकता है। उपरूपक के १८ भेद होते हैं, जिनको नामावली और परिचय से कोई लाभ नहीं। कारण, ये प्राचीन परिपाटी के रूपक हैं और हिन्दी में अधिकांश का अवतार न हुआ है और न होने की संभावना ही है। इनमें नाटिका का 'रत्नावली', त्रोटक का 'विक्रमोर्वशी' और सट्टक का 'कपूरमंजरी उदाहरण हैं, जो संस्कृत और प्राकृत से हिन्दी में अनूदित होकर आये हैं। ____ भाण, व्यायोग, अंक, वीथी और प्रहसन-ये पांचों रूपक पुराने ढंग के एकांकी नाटक हैं। प्रहसन में एक अंक से अधिक भी अंक हो सकते हैं। उपरूपक के गोष्ठी, नाट्यरासक, उल्लाप्य, काव्य, प्रेषण, रासक, श्रीगदित तथा विलासिका भेद हैं । ये भी अपनी विशेषता रखते हुए एकांको नाटक ही हैं। (ख) विषयानुसार (नवीन) हिन्दी के नाट्य साहित्य का निर्माण प्रायः अनुवाद से हुआ है। इसमें संस्कृत के नाटको, शेक्सपियर तथा मोलियर के नाटकों और बँगला नाटकों का अनुवाद सम्मिलित हैं। इस समय तक मौलिक नाटको का कोई महत्त्व नहीं था