पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३८०

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सत्रहवीं छाया कवि और भावक कवि और भावक में कोई भेद है या दोनों ही एक स्वभाव के हैं, अथवा कवि का भावक होना या भावक का कवि होना संभव है या असंभव, इन बातों को लेकर पक्ष और विपक्ष में आलोचना-प्रत्यालोचना का अन्त नहीं। आज का पाश्चात्य साहित्य इस विवाद का बड़ा अखाड़ा है। यही क्यों, प्राच्य साहित्य भी इस विषय में पिछड़ा हुआ नहीं है। उसमें भी इसका मार्मिक विवेचन है। प्रतिभा दो प्रकार की होती है-एक कारयित्री अर्थात् कवि का उपकार करने वाली और दूसरी भावयित्री अर्थात् भावक का, सहृदय का उपकार करनेवाली । पहली काव्य-रचना में सहायक होती और दूसरी कवि के श्रम और भाव को हृदयंगम करने में सहायक होती है । इसी बात को लेकर एक कवि का कथन है कि कोई अर्थात् कारयित्री-प्रतिभा-विशिष्ट कवि वचन-रचना में चतुर होता है और कोई दूसरा भावयित्री-प्रतिभा-विशिष्ट भावक सुनने में अर्थात् सुनकर भावना करने में समर्थ होता है। जैसे, एक पत्थर सोना उपजाता है और दूसरा पत्थर- निकषपाषाण (कसौटी) उसकी परीक्षा में क्षम होता है।' कवित्व से भावकत्व के और भावकत्व से कवित्व के पृथक होने का कारण यह है कि दोनों के विषय भिन्न-भिन्न हैं। एक का विषय शब्द तथा अर्थ है और दूसरे का विषय रसास्वादन है। यह विषय-भिन्नता है। इनकी रूप-भिन्नता भी है। कवि काव्य करनेवाला होता है और उसमें तन्मय होनेवाला भावक होता है। ___ कहते हैं कि कवि भी भावना करता है और भावक भी कविता करता है। उद्धृत श्लोक के दूसरे चरण का आशय है कि 'कल्लाणी, तेरी बुद्धि तो दोनों प्रकार को-कारयित्री और भावयित्री-है, जिससे हमें विस्मय होता है। इससे एक का दोनों होना-कवि और भावक होना निश्चित है। ऐसे कुछ भावक हो सकते हैं, जो कवि भी हों। यहाँ यह कहा जा सकता है कि भावक भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। इनमें एकता नहीं पायी जाती। कोई भावक वचन का अर्थात् शब्दगुम्फन के सौष्ठव का भावक-विवेचक होता है; कोई हृदय का अर्थात् काव्य के मर्म का जानकार होता है और कोई भावक साविक तथा प्राङ्गिक अनुभावों का प्रदर्शन-पूर्वक विचारक होता है। कोई १ कश्चिद्वाचं रचयितुमलं श्रोतुमेवापरस्तां । कल्याणी ते मतिरुभयया विस्मयं नस्तनोति । नय कस्मिन्नतिशययतां सन्निपातो गुणाना- मेकसूते कनकनुपलस्तत्परीक्षाक्षमोऽयः ।। काव्यमीमांसा