पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३८४

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कवि और भावक यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है कि कवि भावक नही हो सकता। 'काव्यालोक' के उदाहरणों में कुछ पद्यों की ऐसी व्याख्या की गयी है कि उनके कवियों ने स्वयं लेखक से कहा है कि हमने तो कभी सोचा भी न था कि इनकी ऐसी व्याख्या को जा सकती है ; इनकी बहुत बारीकियां निकाली जा सकती हैं, इनका अद्भुत तथ्योदघाटन किया जा सकता है। जो यह कहते है कि रचनाकाल में कलाकार, विशेषतः कवि अपनी रचना का आनन्द लेता रहता है, उर्दू के शायरों में अधिकतर यह बात देखी जाती है, वह बात दूसरी है। भावक का काम केवल आनन्द हो लेना नही है। वह कलात्मक ज्ञान के साथ विश्लेषण-बुद्धि भी रखता है। वह मित्र, मंत्री आदि होने का भी दावा रखता है। कवि का चित्त यदि अपनी सृष्टि में सर्वतोभावेन स्वयं ही लीन हो जाय तो उसको सृष्टि-शक्ति दुर्बल हो जाती है। वह शक्तिशाली होने पर भी सामोचित साहित्य की सृष्टि नहीं कर सकता। भावक जैसे भाव आदि का विश्लेषण करके काव्य समझने की चेष्टा करता है वैसा कवि नहीं करता। वह इन विषयों में सचेत रहता है; पर समीक्षक नहीं बन जाता । कवि का काम है रस को भोग्य बनाना, न कि उसका स्वयं चर्वण करने लग जाना ! वह पहले स्रष्टा है, पीछे भले ही भोक्ता हो । स्रष्टा समालोचक नहीं होता। निष्कर्ष यह कि सजन-सृष्टि करना और आलोचन-विचार करना दोनों दो शक्तियों के काम हैं, विभिन्न मानसिक क्रियाएँ हैं। यह सत्य है, भ्रामक नहीं। श्रेष्ठ साहित्य के स्रष्टा को विचार-शक्ति न्यून होती है और जो श्रेष्ठ समालोचक हैं वे प्रायः श्रेष्ठ स्रष्टा नहीं होते। इस समस्या का समाधान इस प्रकार हो सकता है कि यदि कलाकार में रसिकता-भावकता भी हो तो वह कलाकार और भावक, दोनों हो सकता है । 'कविर्हि सामाजिकतुल्यं एवं' पर ये दो प्रकार की प्रतिभाएँ है-गुण है, इसमें सन्देह नहीं। टी० एस० इलियट का कहना है कि कलाकार जितना ही परिपूर्ण- कुशल होगा, उतना ही उसके भीतर के भोक्ता मानव और सर्जक-मस्तिष्क की पृथकता परिस्फुट होगी।' यही बात क्रोचे भी कहते है-'जब दूसरों को और अपनेको एक हो विशुद्ध काव्यानन्द की उपलब्धि हो२ तभी समाजिकगत तथा रषिकगत रख की बात कही जा सकती है। o 1 more perfect the artist, the more completely separate in him will be the man who suffers and the mind which creates. ___2....bestowing pure poetic joy either upon others or upon himeslf.