पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

आठवाँ प्रकाश पहली छाया शब्द-दोष काव्य का निर्दोष होना बहुत ही आवश्यक है ; क्योंकि दोष काव्य-कलेवर को कलुषित कर देता है। पर दोष है क्या ? इसके सम्बन्ध में 'अग्निपुराण' कहता है कि 'काव्यास्वाद' से जो उद्वेग पैदा करता है वह दोष है।' दर्पणकार कहते हैं कि 'शब्दार्थ' द्वारा जो रस के अपकर्षक-हीनकारक हैं वे हो दोष हैं। काव्य-प्रकाशकार मम्मट कहते है-'जिसमें मुख्य अयं का अपकर्ष हो वह दोष है।' कवि का अभिप्रेत अर्थ ही मुख्य अर्थ है। कवि जहाँ वाच्य अर्थ में उत्कर्ष दिखलाना चाहता है वहां वाच्य अर्थ मुख्य अर्थ होता है । कवि जहाँ रस, भाव आदि में सर्वोत्कृष्ट चमत्कार चाहता है वहां रस, भाव आदि ही मुख्याथ समझे जाते हैं। परम्परा-सम्बन्ध से शब्द भी मुख्यार्थ माना गया है । 3 वामन ने गुणों के विरोध में आनेवालों को दोष कहा है । अतः, अविलम्ब मुख्यार्थ को प्रतीति में-चमत्कार के तत्काल ज्ञान होने में बाधा पहुँचानेवाले दोष हैं, जो त्याज्य माने जाते हैं। आनल्ड का कहना है कि अपनी अपेक्षा अपनी कला का समादर अधिक आवश्यक है। यह दोषत्याग को ही लक्ष्य में रखकर उक्त है। इस काव्य दोष के १ शब्द-दोष, २ अर्थ-दोष और ३ रस-दोष तीन भेद होते हैं। अपकर्ष भी तोन प्रकार का होता है-१ काव्यास्वादरोधक, २ काव्योत्कर्ष- विनाशक और ३ काव्यास्वाद-विलम्बक | अभिप्राय यह कि कवि के अभिप्रेतार्थ १ उद्वेगजनको दोषः २ दोषास्तस्यापकर्षकाः। है मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयादाच्यः । समयोपयोगिनः स्युः शब्दाथाः तेन तेष्वपि सः। ४ गुणविपर्ययात्मानौ दोषाः । ५ नीरसे त्वविलंबितचमत्कास्विाक्यार्थप्रतोतिविधात्तका एवं हेयाः । काव्यप्रदीप 1 Let us at least have so much respect for our art as to prefer it to ourselves.