पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३८७

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काव्यदर्पण कहना नहीं होगा कि 'मेरे में, के स्थान पर 'मुझमें' और 'पाशवता' के स्थान पर 'पशुता' या 'पाशव' ही प्रयोग शुद्ध हैं। यहां एक ही अर्थ में दो भाव- वाचक प्रत्यय हैं। ३. अप्रयुक्त-व्याकरण आदि से सिद्ध पद का भी अप्रचलित प्रयोग अप्रयुक्त दोष कहलाता है। अकाल में मंडप माँगते मॉड़ नहीं मिलता मॅडधोवन भी। यहां 'मंडप' 'मँडपीवों' के अर्थ में आया है। यद्यपि पद शुद्ध है, तथापि 'मंडप मड़वे के अर्थ में ही प्रयुक्त होता है, मँडपीवों के अर्थ में नहीं। काव्य में ऐसे प्रयोग दूषित हैं। इससे पाठकों को शीघ्र पदार्थों का अर्थावगमन नहीं होता। राजकुल भिक्षाचरण से लगा भरने पेट । यहाँ भिक्षाटन के स्थान पर भिक्षाचरण अप्रयुक्त है। ४. असमर्थ-जिस अर्थ को प्रकट करने के लिए जो पद रखा जाय उससे अभीष्ट श्रथ की प्रतीति न होना असमर्थ दोष है। मणि कंकण भूषण अलंकार, उत्सर्ग कर दिये क्यों अपार ? यहाँ उत्सर्ग छोड़ने के अर्थ में आया है ; पर दान देने का अर्थ-बोध करता है, जो यहां नहीं है। भारत के नम का प्रभापूर्य, शीतलच्छाय सांस्कृतिक सूर्य अस्तमित आज रे तमस्तूर्य दिड मंडल । इसमें 'प्रभापूर्य का प्रकाश करनेवाला और 'तमस्तूर्य' का अंधकार को तुरही बजा रही हो, अर्थ किया गया है। पर इनके 'प्रभा से भरने योग्य' और 'अंधकार रूपी तुरही' ये हो अर्थ हो सकते हैं, अन्य नहीं। पृष्ठपोषक भले ही बाल की खाल निकालें पर यहां असमर्थ दोष है। टिप्पणी-एकार्थवाची शब्दों में अप्रयुक्त दोष होता है और असमथं दोष अनेकार्थवाची शब्दों में। पहले में अर्थ किसी प्रकार दबता नहीं और दूसरे में अभिप्रेतार्थं दब जाता है। (क) अयथार्थ दोष-यथार्थ के अभाव में यह दोष होता है। लिये स्वर्ण आरती भक्तजन करते शंखध्वनि झनकार । दूसरे चरण में अयथार्थ दोष है, क्योंकि तारों के शब्द में ही झनकार का व्यवहार होता है। ५. निहितार्थ-जहाँ दो अर्थोंवाले पद का अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयोग किया 'खाता है वहां यह दोष होता है।