पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४००

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अर्थ-दोष १४. सहचर भिन्न-उत्कृष्ट के साथ निष्कृष्ट का या निकृष्ट के साथ उत्कृष्ट का वर्णन 'सहचर भिन्न' दोष का मूल है। क्योंकि, सुन्दर और असुन्दर का सम्मिलित वर्णन विजातीय होता है, फबता नहीं है। वैद को वैद गुनी को गुनी ठग को ठग ठूमक को थन भावे काग को काग, मराल मराल को, कांधै गधा को गधा खुजलावे । कवि 'कृष्ण' कहे बुध को बुध त्यों, अरु रागी को रागी मिले सुर गावे । ज्ञानी सों ज्ञानी कर चरचा, लबरा के ढिगों लबरा सुख पावे । यहां वैद, गुणी, मराल, बुध, रागी जैसे उत्कृष्ट जनों के साथ-साथ ठग, कौश्रा, गधा, लबरा का वर्णन शोभादायक नहीं। इससे बढ़कर सहचर-भिन्नता दुर्लभ है। १५. प्रकाशित विरुद्ध-जिस भाव को कवि प्रकाशित करना चाहे उसके विरुद्ध होने से यह दोष होता है। मनु निरखने लगे ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप वह अनन्त प्रगाढ़ छाया फैलती अपरूप । यहाँ अपरूप से अभिप्राय है शोभन-रूप, पर वस्तुतः अपरूप का अर्थ है अपगतरूप अर्थात् विकृत रूप जो प्रकाशित भाव के विरुद्ध है। बॅगला में इसका सुन्दर अर्थ माना जाता है। ___अब अपने निष्कंचन भाई को उसमें बह जाने दो। यहाँ अकिचन अर्थात् सर्वस्वहीन के अर्थ में निष्कंचन का प्रयोग है; पर इसका अर्थ होता है कंचन को छोड़कर सब कुछ (रुपया-पैसा आदि) पास है, प्रकाशित अर्थ के विरुद्ध है। १६. निमुक्तपुनरुक्त दोष-जहाँ किसी अर्थ का उपसंहार करके पुनः उसका ग्रहण किया जाय वहाँ यह दोष होता है। मेरे ऊपर वह निर्भर हैं खाने-पीने सोने में जीवन की प्रत्येक क्रिया में हँसने में ज्यों रोने में। यहां तीसरे चरण में उपसंहार हो जाता है; पर पुनः हँसने, रोने का उल्लेख करके उसी अर्थ का ग्रहण किया गया है। १७. अश्लील-किसी लखाजनक अर्थ का बोध होना यह दोष है। उन्नत है पर छिद्र को क्यों न जाइ मुरझाइ दूसरे का छिद्र देखने पर ही जो उतारू है, ऐसा खल क्यों न मुरझा जायगा -होन बन जायगा । पर, इसके अतिरिक्त पुरुषेन्द्रिय का भी अर्थ निकलता है जो अश्लील-लजानक है।