पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४१

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Ka ३ नीतिकाव्य में न तो वैसा रस-भाव का महत्त्व रहता है और न अर्थ का हो। उसमे शुष्क उपदेश-मात्र रहता है। नीतिकाव्य से शिक्षा-लाभ होता है। इसको नीतिकाव्य कहने का कारण इसका पद्यवद्ध होना, रोचक रूप से विचार प्रगट करना आदि है। यदि नीतिकाव्य मे सरसता हो तो वह बोधकाव्य की श्रेणी मे जा सकता है। ४ हम उस कविता को काव्याभास की श्रेणी में ले जा सकते है जिसमें किसी काव्याङ्ग का निर्वाह नहीं किया जाता। उसमे न तो कोई भाव ही रहता है और न कोई विचार । रस की बात तो बहुत दूर है। ऐसी कविता नीति और शिक्षा से भी छूछी ही रहती है ; क्योंकि कवि स्वयं इसकी आवश्यकता नहीं समझता। ऐसी कवितात्रो के पढ़ने-सुनने से पाठक या श्रोता पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। फिर भी ये सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होती रहती हैं। ऐसी कविताये कविता के नाम से अभिहित तो होती है पर अयथार्थ होने के कारण काव्याभास की श्रेणी में आती है। काव्य और कला स्व को कलन करना ही कला है। "कला वस्तुत्रो मे या प्रमातात्रो मे स्व को-आत्मा को परिमित रूप मे प्रगट करती है"।' कला से सुख मिलने का कारण सही है कि उसमें कलाकार की अनुभूति का स्वान्तः सुख समाया हुआ है । क्रोचे ने कला के लिए एक छोटा-सा वाक्य कहा है-"प्रत्येक कला एक अभिव्यक्ति है"२ अर्थात् कलाकार की कल्पना का प्रकाशन है। यथार्थतः यत्र-तत्र- “सर्वत्र अभिव्यक्ति की ही क्रीड़ा है । प्रकाशन-कौशल ही तो कला है। काका कालेल- कर कहते है--"कला जब तटस्थता से रस के निदर्शन के लिए ही कोई अभिव्यक्ति करती है तभी वह कला कहलाने की अधिकारिणी है।" प्रकृति के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द से अनवरत अनन्त सौन्दर्य का स्रोत 'प्रवाहित होता रहता है। मनुष्य उनको देख-सुन तथा अनुभव करके लुब्ध-मुग्ध हो रहा है। वह इस विश्व-सौन्दर्य को अपनाना चाहता है और रूप देना चाहता है। उसकी यह मनःकामना है कि मेरे सौन्दर्यानुभव का आनन्द मुझ-जैसे दूसरे भी लूटे । मनुष्य क्यों रूप देना चाहता है, इसका उत्तर यह है कि वह अनुकरशाप्रिय हैं। १ कलयति स्वरूपमावेशात वस्तूनि वा तत्र-तत्र प्रमातरि कलनमेव कला। -शिवसूत्राविनाशिनी २.. Albartisanempression. . . .