पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४४८

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अनुप्रास ३६७ प्रावृत्ति हो वहाँ भागावृत्ति होती है । इनके भी कई भेदोपभेद होते हैं। हिन्दी में सिंहावलोकन यमक होता है जिसे मुक्तपदग्राह्य भी कहते हैं। ५ लाल है भाल सिंदूर भर्यो मुख सिन्धुर चारु औ बांह विशाल हैं ! शाल है शत्रन को कवि 'देव' सुशोभित सोमकला धरे भाल हैं। भाल है दीपत सूरज कोटि सों काटत कोटि कुसंकट जाल हैं। माल है बुद्धि विवेकन को यह पारवती के लड़ायती लाल हैं। यहाँ श्रादि अन्त के 'लाल' हैं और प्रत्येक चरण के अन्तिम शब्द श्रावृत्त होकर आये हैं । इसमें सिंहावलोकन के तुल्य-सिह के ऐसा मुड़-मुड़कर देखने के समान मुक्त पद ग्राह्य हुए हैं। ३ पुfनरुक्ति ( Tantology) भाव को अधिक रुचिकर बनाने के लिए जहाँ एक ही बात को बार-बार कहा जाय वहाँ पुनरुक्ति होती है। १ विहग-विहग फिर चहक उठे ये पुज-पुज चिर सुभग-सुभग । - पंत २ इसमें उपजा यह नीरज सित कोमल कोमल लज्जित मीलित, सौरभ सो लेकर मधुर पीर ।- महादेवी ४ पुनरुक्तवदाभास ( Similar Tantology ) जहाँ विभिन्न अर्थवाले भिन्नाकार के पद सुनने में समानार्थी प्रतीत हों वहाँ यह अलंकार होता है। १ समय जा रहा और काल है आ रहा, सचमुच उलटा भाव भुवन में छा रहा।-गुप्त यहाँ समय और काल पर्यायवाची हैं; पर यहाँ काल का अर्थ मृत्यु लिया २ अली भौर गूंजन लगे होन लगे दल-पात । ___ जहँतह फूल रूख तरु प्रिय प्रीतम किमि जात ।-प्राचीन यहां समानार्थक 'अली' का 'सखी', 'पात' का अर्थ गिरना' 'रूख' का 'सूखा' और 'प्रिय' का प्यार अथं लिया गया है ।