पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४५०

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अनुप्रास ३६९ इस प्रश्नात्मक चौपाई का अर्थ काकु से उत्तर-रूप में कहा जाय तो यही निकत्तेगा कि हंसिनो लवण समुद्र में नहीं जी सकतो और कोरल करीज-कानन में कभी शोभा नहीं पा सकती। वह काकु-उक्ति से पाक्षिप्त व्यंग्य है जो गुणीभूत व्यंग्य का एक मेद है। टिप्पणी-यह काकु-वक्रोक्ति वहीं होती है, जहां एक व्यक्ति के कथन का अन्य व्यक्ति द्वारा अन्याथ कल्पित किया जाय। जहां स्वोक्ति में ही काकु-उक्ति होती है वहां काकु व्यंग्य होता है । हर जिसे वशकंधर ने लिया, कब भला फिर फेर उसे दिया। खल किसे न हुआ मम त्रास है, निडर हो करता परिहास है।-रा० उपा० इसके उत्तराद्ध से यह भासित है कि मेरा डर सब किसीको है। तू मुझसे है सो मत कर। प्रथम उदाहरण में स्वोक्ति नहीं कही जा सकती। क्योंकि, यहाँ राम को लक्ष कर कौशल्या ने कहा है और एक के कहने का दूसरे की ओर से विपरीत अर्थ किया गया है। ____ कण्ठ-ध्वनि को विशेषता से हो अर्थ का हेर-फेर होता है और कण्ठ-ध्वनि शब्द की ही विशेषता रखती है । इससे शब्दालंकार में इसकी गणना होती है । अर्थमुलक काकु-वक्रोक्ति भी होती है। ७ श्लेष ( Patonomasia) श्लेष अलंकार वहाँ होता है जहाँ श्लिष्ट शब्दों से अनेक अर्थ का विधान किया जाय । अभंग और सभंग भेद से से यह दो प्रकार का होता है। (क) अभंग श्लेष वह है जिसमें शब्दों के दो अर्थ करने के लिए उसका भंग-टुकड़ा न किया जाय । १ विमाता बन गयी ऑधी भयावह । हुआ चंचल न फिर भी श्याम धन बह । पिता को देख तापित भूमितल सा बरसने लग गया वह वाक्य जल सा । गुप्त इसमें श्याम धन के दो अर्थ-श्याम राम और श्याम धन-मेघ । इस श्लेष से ही यहां रूपक की रचना है। २ रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून । पानी गये न ऊबरे मुकता मानव चून । इसमें पानी के तीन अर्थ हैं-मोती के पक्ष में कान्ति, चमक, मानव का००-२६