३७२ काव्यदर्पण पूर्णोपमा ( Complete simile ) जहाँ उपमान, उपमेय, धर्म और वाचक, चारों ही शब्द द्वारा उक्त हों वहाँ पूर्णोपमा होती है। तापस बाला सी गंगा कल शशि मुख से दीपित मृदु करतल, लहरें उर पर कोमल कुन्तल गोरे अंगों पर सिहर सिहर, लहराता तरल तार सुन्दर चंचल अंचल सा नीलाम्बर। साड़ी की सिकुड़न सी जिस पर शशि की रेशमी विभा से भर, सिमटी है वर्तुल मृदुल लहर। . इसमें गंगा, नीलाम्बर और लहर उपमेय, तापस-बाला, अंचल और साड़ी को सिकुड़न उपमान, कन, लहराता और सिमटो साधारण धर्म तथा सी, सा वाचक हैं। चूमता था भूमितल को अर्ध विधु-सा माल । बिछ रहे थे प्रेम के दृगजाल बनकर बाल । छत्र सा सिर पर उठा था प्राणपति का हाथ । हो रही थी प्रकृति अपने आप पूर्ण सनाथ ।-गुप्त इसमें भाल और हाथ उपमेय, विधु और छत्र उपमान, सा वाचक और चूमता तथा उठा था समान धर्म हैं-पहली और तीसरी पंक्तियों में इस प्रकार पूर्णोपमा है। नीलोत्पल के बीच सजाये मोती से ऑसू के बूद हृदय सुधानिधि से निकले हों सब न तुम्हें पहचान सके । इसमें बूंद उपमेय, मोती उपमान, से वाचक और सजाना साधारण धर्म हैं। __ माला पूपिमा हो हो कर जो हुई न पूरी ऐसी अभिलाषा सी , कुछ अटको आशा सी, भटकी भावुक की भाषा सी। सत्य धर्म रक्षा हो जिससे ऐसी मर्म मृषा सी , कलश कूप में पाश हाथ में ऐसी भ्रान्त तृषा सी। गुप्त गोपियों को गोष्ठी की ऐसी पूर्णोपमा और लुप्तोपमा की अनेक पद्यों में गुथी हुई माला 'द्वापर' में द्रष्टव्य है। कहो कौन हो दमयन्ती सी तुम तर के नीचे सोई , हाय तुम्हें भी त्याग गया क्या अलि नल सा निष्ठूर कोई ? गूढ कल्पना सी कवियों की अज्ञाता के विस्मय सी, ...ऋषियों के गंभीर हृल्य सी बच्चों के तुतले भय सी।-पंत
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