पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अर्थालंकार ये 'छाया' नामक कविता को पंक्तियां हैं, जिनमें पूर्णोपमा और लुप्तोपमा को माला-सी गुंथी हुई है। फूली उठे कमल से अमल हितू के नैन । कहै रघुनाथ भरे चैन रस सियरे । दौरि आये भौर से गुनी गुन करत गान । सिद्ध से सुजान सुख सागर सों नियरे । सुरभि सी खुलन सुकवि की सुमति लागी चिरिया सी जागी चिंता जनक के जियरे । धनुष पै ठाढ़े राम रवि से लसत आज भोर के से नखत नरेन्द्र भये पियरे । इन पद्यों के उपमान, उपमेय, वाचक और समान धर्म को समझ लेना कोई कठिन बात नहीं। लुप्तोपमा (Incomplete simile ) जहाँ उपमा, उपमेय, धर्म और वाचक इन चारों में से एक, दो अथवा तीनों का लोप हो-कथन न किया जाय वहाँ लुप्तोपमा होती है। (क) धर्मलुप्ता-प्रति दिन जिसको मैं अंक में नाथ लेके , निज सकल कुअंकों की क्रिया कोलती थी ! अति प्रिय जिसका है वस्त्र पीला निराला , वह किसलय के से अंगवाला कहाँ है ?-हरिऔध यहाँ अंग उपमेव, किसलय उपमान और से वाचक शब्द तो हैं पर साधारण धर्म कोमलता उक्त नहीं है। (ख) उपमानलुप्ता-तीन लोक झॉकी ऐसी दूसरी न झाँकी जैसी झाँकी हम झांकी बॉकी युगल किशोर की।-पजनेस इसमें झांको उपमेय, बांको धर्म और ऐसी वाचक शब्द हैं, पर दूसरी न झांकी से उपमान लुप्त है। (ग) वाचकलुप्ता-जील सरोव्ह श्याम तरुण अरुण वारिज नयन , करी सो मम उर धाम सदा क्षीर सागर सयन ।-तुलसी शरीर और नयन उपमेय, नील, सरोरुह और तरुण वारिज उपमान तथा अरुण और श्याम धर्म हैं पर उपमावाचक शब्द नहीं है । (घ) उपमेयलुप्ता-पड़ी थी बिजली सी विकराल लपेटे थे घन जैसे बाल । कौन छेड़े ये काले सॉप अवनिपति उठे अचानक काँप ।-गुप्त