पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४६१

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तीसरी छाया आरोपमूल अभेदप्रधान जहाँ उपमेय और उपमान के साधय में अभेद रहता है वहाँ सादृश्यगर्भ अभेदप्रधान भेद होता है। इसके दो भेद होते हैं-आरोपमूल और अध्य- वसायमूल । पहले में रूपक श्रादि छह और दूसरे में उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति दो अलंकार आते हैं। ५ रूपक ( Metaphor) उपमेय में उपमान के निषेध-रहित आरोप को रूपक अलंकार कहते हैं। अभेद रूपक जहाँ उपमेय में अभेद-रूप से उपमान का आरोप किया जाता है वहाँ अभेद रूपक होता है। अारोप का अर्थ है एक वस्तु में दूसरी वस्तु को कल्पना कर लेना। इस प्रकार उपमेय और उपमान को एकरूपता होने से-भिन्नता का कोई भाव नहीं रहने से रूपक अलंकार होता है। रूपक में उपमेय का निषेध नहीं किया जाता है जैसा कि अपह्न ति में उपमेय का किया जाता है । दोनों के आरोप में यही अन्तर है। उपमा में उपमेय और उपमान का भेद बना रहता है, पर रूपक में भिन्न होते हुए भी दोनों एकरूपता को प्राप्त कर लेते हैं। उपमा में दोनों का सादृश्य रहता है और इसमें एकरूपता रहती है । वाचक-धर्मलुप्तोपमा में उपमान पहले रखा जाता है, जैसे चन्द्रमुख । अथं होता है चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख । पर रूपक में उपमेय पहले रखा जाता है, जैसे मुखचन्द्र । दोनों में यही अन्तर है। ___ अभेद दो प्रकार का होता है-आहार्य और वास्तव । जहां अभेद न होने पर भी अभेद मान लिया जाता है वहाँ श्राहार्य और जहाँ वस्तुतः अभेद की कल्पना को जाती है वहां वास्तव अभेद होते हैं । रूपक में आहार्य होता है। रामचन्द्र मुखचन्द्र निहारी इस 'मुखचन्द्र' का अर्थ है, मुख हो चन्द्रमा है । यहाँ मुख और चन्द्रमा दो वस्तुएँ पृथक-पृथक् हैं, पर श्राहार्य अभेद से एकरूप मान लिया गया है। वास्तव में अमेद भ्रान्तिमान अलंकार में होता है।