रूपक निरवयव (निरङ्ग) रूपक अवयवों से रहित उपमान का जहाँ उपमेय में आरोप किया जाता है वहाँ यह अलंकार होता है। इसके दो भेद होते हैं-१ शुद्ध और २ मालारूप । १. शुद्ध रूप वह है जिसमें अवयवों के बिना उपमान का उपमेय में आरोप हो। इस हृदय-कमल का घिरना अलि-अलकों की उलझन में। ऑस-मरन्द का गिरना मिलना निःश्वास-पवन में।-प्रसाद इसमें चार रूपक है जो निरवयव हैं। हरि मुख-पंकज, भ्रू-धनुष लोचन-खंजन मित्त । अधर-विंब कुण्डल-मकर बसे रहत मो चित्त ।-प्राचीन मुख-पंकज, भ्र-धनुष, कुण्डल-मकर आदि में सामान्य गुणों को लेकर रूपक बांधा गया है । इनमें अङ्गों का वर्णन नहीं है। कनक-छाया में जब कि सकाल खोलती कलिका उर के द्वार । सुरभि-पीड़ित मधुपों के बाल तड़प बन जाते है गुजार ।-पंत इसमें निरवयव रूपक का भिन्न रूप है । उर में द्वार का रूपक है और मधुपो के बाल में गुजार का रूपक है। २. माला-रूपक वह है जिसमें एक उपमेय में अवयवों के बिना अनेक उपमानों का आरोप हो। ओ चिता की पहली रेखा, अरे विश्ववन की व्याली ज्वालामुखी स्फोट के भीषण प्रथम कंप-सी मतवाली। हे अभाव की चपक बालिके, री ललाट की खल रेखा प्रसाद, यहाँ चिन्ता में विश्व-वन की व्याली आदि उपमानों का आरोप किया गया है, जो निरवयव हैं। बम धुआरे काजर कारे हम ही विकरारे बादर मदनराज के बीर बहादुर पावस के उड़ते फणधर ।-पंत यहां वादर में दूसरी पंक्ति के दो निरवयव उपमानों का आरोप है। वे वीर थे, वे धीर थे, थे क्षीर-सागर धर्म के । ज्ञानीन्द्र थे मानीन्द्र थे वे थे धराधर कर्म के । वे क्रोध में यमराज वे लावण्य में रतिनाथ थे। भूमोश्वरों के माथ थे सुरलोक पति के हाथ थे।-रा० च० उ एक राजा दशरथ उपमेय में इन अनेक निरवयव उपमानों का आरोप गया है।
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