पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४६५

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३८४ - काव्यदर्पण परंपरित रूपक जहाँ एक आरोप दूसरे आरोप का कारण हो, वहाँ यह अलंकार होता है। इसमें एक उपमेय में किसी उपमान का आरोप पहले होता है। पीछे उसके आधार पर दूसरे रूपक का निरूपण होता है। पहला कारण-रूप और दूसरा कार्य- रूप होता है। परंपरित का अर्थ है कार्य-कारण-रूप से आरोपों की परम्परा होना । यह दो प्रकार का है- १. श्लिष्ट शब्द-मूलक अर्थात् श्लिष्ट शब्दों के प्रयोग में जहां रूपक हो । खर-वाण-धारा-रूप जिसकी प्रज्ज्वलित ज्वाला हुई। जो वैरियों के व्यूह को अत्यन्त विकराला हुई । श्रीकृष्ण रूपी वायु से प्रेरित धनञ्जय ने वहाँ, कौरव चमू बन कर दिया तत्काल नष्ट जहाँ-तहाँ।-गुप्त यहां धनञ्जय अर्जुन में धनञ्जय अग्नि का आरोप ही कारण है कि ज्वाला और वायु के रूपक बांधने पड़े हैं । यहाँ धनञ्जय शब्द श्लिष्ट है । २ भिन्न-शब्द-मूलक वह है जिसमें बिना श्लेष के भिन्न-भिन्न शब्दों में आरोप हो। तिर रही अतृप्ति जलधि में नीलम की नाव निराली । काला पानी वेला सी है अंजन रेखा काली।-प्रसाद अतृप्ति में जलधि का जो आरोप है वही रूपकातिशयोक्ति से आँखों में नाव और अंजन-रेखा में काला पानी बेला के आरोप का हेतु है। बाड़व-ज्वाला सोती थी इस प्रणय-सिन्धु के तल में। प्यासी मछली-सी आँखें थीं विकल रूप के जल में।-प्रसाद आंखों में मछली का आरोप ही रूप में जल के रूपक का कारण है। यहाँ 'सी' उपमा भ्रामक है । उपमा है नहीं, रूपक ही है। तुम बिनु रघुकुल-कुमुद विधु सुरपुर नरक समान, यहाँ रघुकुल में कुमुद के आरोप के कारण ही रामचन्द्र में विधु का आरोप किया गया है, जो समस्त पद से है। ___तादू प्य रूपक उपमेय को उपमान का जहाँ दूसरा रूप कहा जाता है वहाँ तद्रप .. होने से यह अलंकार होता है। अर्थात् उपमेय उपमान का रूप ग्रहण करता है, पर उससे भिन्न कहा जाता है।