पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४७६

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अतिशयोक्ति ३६५. ४ असम्बन्धातिशयोक्ति-जहाँ सम्बन्ध में असम्बन्ध की कल्पना हो वहाँ यह अलंकार होता है। बन्दनीय यह पुण्यभूमि है, महा श्रष्ठ है क्षत्रिय-वंश; जिसमें लेकर जन्म बन गये जो अनुपम नृप-कुल अवतंश । जिनके चरित कथन में होते कवि-पुङ्गव भी नहीं समर्थ, उनकी गाथाओं के गुम्फन का प्रयास है मेरा व्यर्थ ।-पुरोहित यहाँ रचना का प्रयास है, फिर भी उसे व्यर्थ कहा गया है। सम्बन्ध में असम्बन्ध उक्त है। औषधालय भी अयोध्या में बने तो थे सही। किन्तु उनमें रोगियों का नाम तक भी था नहीं।-रा० च० उ० औषधालय के होने रूप सम्बन्ध में रोगियों का न रहना रूप अमन्बन्ध की कल्पना की गयी है। ५कारणातिशयोक्ति-कारण और कार्य के पूर्वापर को विपरीतता में कारणातिशयोक्ति अलकार होता है। इसके तीन भेद है। (१) अक्रमातिशयोक्ति-इसमें कार्य और कारण का एक ही काल में होना' कहा जाता है। क्षण भर उसे संधानने में वे यथा शोभित हुए, है भाल-नेत्र-ज्वाल हर ज्यों छोड़ते क्षोभित हुए। वह शर इधर गाण्डीव गुण से भिन्न जैसे ही हुआ, धड़ से जयद्रथ का उधर सिर छिन्न वैसे ही हुआ।-गुप्त इसमें एक ओर बाण का छूटना और दूसरी ओर सिर का काटना-कारण-- कार्य का एककालिक वर्णन है। (२) चपलातिशयोक्ति-इसमे कारण के ज्ञान-मात्र से कार्य का होना वर्णित होता है। १ चण्डि सुनकर ही जिसे सातंक, चुभ उठे सौ बिच्छओं के डंक । दण्ड क्या उस दुष्टता का स्वल्प ? है तुषानल तो कमलदल तल्प । -गुप्तः २ मैं जमी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ। भुजलता फंसाकर नर तरु से झूले सी झोंके खाती हूँ।-प्रसाद पाले में दुष्टता के सुनने मात्र से सौ बिच्छुओं के डंक चुभ उठना और दूसरे में तौलने के उपचारमात्र से तुल जाना कारण के ज्ञान मात्र से कार्य का होना है। (३) अत्यंतातिशयोक्ति में कारण के प्रथम ही कार्य का होना वणित होता है । शर खींच उसने तूण से कब किधर संघाना उन्हें, बस विद्ध होकर ही विपक्षी वृन्द ने जाना उन्हें । -गुप्त