पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४८२

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४०२ काव्यदर्पण वाक्य में उपमान वाक्य के अर्थ का आरोप किये जाने के कारण उनका सम्बन्ध बना रहता है। श्री राम के हयमेघ से अपमान अपना मान के, मख अश्व जब लव और कुश ने जय किया रण ठान के । अभिमन्यु षोडश वर्ष का फिर क्यों लड़े रिपु से नहीं, क्या अर्यवीर विपक्ष-वैभव देख कर डरते कहीं ?-गुप्त तीसरी पंक्ति में उपमेय वाक्य और पूर्वाद्ध में उपमान वाक्य हैं। शेष बातें पहले की-सी हैं। जो, सो, तो, जे, ते श्रादि वाचक शब्द द्वारा दो असमान वाक्यों की एकता भी दिखायी जाती है। पिछले उदाहरण में 'जब' भी वाचक माना जा सकता है । भरिबो है समुद्र को संबुक में छिति को छिगुनी पर धारिबो है बँधिबो है मृनाल सों मत्त करी जुही फूल सौं सैल बिदारिबो है। गनिबो है सितारन को कवि 'शंकर' रेन स तेल निकारिबो है। कविता समुझाइबो मूढ़न को सविता गहि भूमि पे डारियो है ॥ मूढों को कविता समझाना उपमेय वाक्य और शंबुक में समुद्र को भरना आदि उपमान वास्य हैं। इनका उपमानोपमेय से मालारूप में निदर्शना है । २ द्वितीय निदर्शना-अपने स्वरूप और उसके कारण का सम्बन्ध अपनी सत्-असत् क्रिया द्वारा सत्, असत् का बोध कराने को द्वितीय निदर्शना अलंकार कहते हैं। पास पास ये उभय वृक्ष देखो अहा ? फूल रहा है एक दूसरा झड़ रहा । है ऐसी ही दशा प्रिये, नरलोक की। कहीं हर्ष की बात कहीं पर शोक की।-गुप्त यहाँ पर वृक्ष अपने फूलने और झड़ने की क्रिया से जगत को सुख-दुःखात्मक गति का निर्देश करते है। कुअंगजों की बहु कष्टदायिता बता रही थी जन नेत्रवान को । स्वकंटकों से स्वयंमेव सर्वदा विदारिता हो बदरी उमावली ।-हरिऔध अपने कंटकों से हो अपने को छिन्न-भिन्न होते हुए वेर के पेड़ कुपुत्रों की कष्टकारिता को मानो बता रहे हैं। यहाँ अपनी असत् क्रिया से असत् बोध कराया गया है।