पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४९१

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अर्थान्तरन्यास ३ सामान्य से विशेष्य का वैधर्म्य द्वारा समर्थन- सुकुमार तुमको जानकर भी युद्ध में जाने दिया, फल योग्य ही हे पुत्र ! उसका शीघ्र हमने पा लिया। परिणाम को सोचे बिना जो लोग करते काम हैं, वे दुःख में पड़कर कभी पाते नहीं विश्राम हैं।-गुप्त इसमें योग्य फल पाना और विश्राम नहीं पाना, इस वैधयं द्वारा पूर्वाद्ध के. विशेष्य का उत्तराद्ध के सामान्य से समर्थन है। जैसा होवे उचित कर तू साथ मेरे कहूँ क्या, ज्ञानी मानी स्वकुल महिमा को नहीं भूलते हैं।-रा० च० उपा० प्रथम पंक्ति के विशेष का दूसरौ पक्ति के सामान्य से करना और भूलना वैधयं द्वारा समर्थन है। ४ विशेष्य से सामान्य का वैधयं द्वारा समर्थन- जीवन में सुख दुख निरन्तर आते जाते रहते हैं, सुख तो सभी भोग लेते है दुःख धीर ही सहते हैं। मनुज दुग्ध से, दनुज रुधिर से, अमर सुधा से जीते है, किन्तु हलाहल भवसागर का शिवशंकर ही पीते है। -गुप्त इसमें शंकर के हलाहल पीने को विशेषता से घोरों के दुःख सहने की सामान्या बात का-महना और पीने के वैधम्यं द्वारा समर्थन है । सामान्य से सामान्य का भी समर्थन होता है- नीच को न कभी स्वमस्तक पर चढ़ाना चाहिये, स्नेह करके मन नहीं उसका बढ़ाना चाहिये। तेल इत्रों से उन्हें यद्यपि बढ़ाते हैं सभी, केश तो भी वक्रता को छोड़ते है क्या कभी।-रा० च० उपाय विशेष से विशेष का समर्थन भी देखा जाता है- सुभग लगता है सहज गुलाब सदा, क्या उषामय का पुनः कहना भला। लालिमा ही से नहीं क्या टपकती, सेव को चिर सरलता सुकुमारता ।-पन्त पहले में नीच और केश दोनों सामान्य और दूसरे में पुष्प-विशेष गुलाब और फल-विशेष सेव का परस्पर समर्थन है । टिप्पणी-दृष्टान्त में उपमेयोपमान भाव से दो समान वाक्य होते हैं और दोनों में समानतासूचक साधारण धर्म विब प्रतिक्वि भाव से मिलते-जुलते हैं और इसमें के बातें नहीं होती, एक का समर्थन दूसरे से किया जाता है ।