पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४९२

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४१२ काव्यदर्पण २६ पर्यायोक्त ( Periphrasis) अभिलषित अर्थ का विशेष-भंगी से कथन करने को पर्यायोक अलंकार कहते हैं। प्रथम पर्यायोक्त-अपने अभीष्ट अर्थ को सीधे न कहकर प्रकारान्तर से, घुमा-फिराकर कहने को पय योक्त कहते है। वचनों से ही तृप्त हो गये हम सखे ! करो हमारे लिए न अब कुछ श्रम सखे ! वन का व्रत हम आज तोड़ सकते कहीं, तो मामी की भेंट छोड़ सकते नहीं ! -गुप्त यहाँ राम के गुह से सीधे न कहकर कि हम तुम्हारे घर नहीं जा सकते, इसी

  • को प्रकारान्तर से कहा गया है।

कौन मरेगा नहीं ? मृत्यु से कभी न डरना, हँसते मरना तात! चित्त को दुखी न करना। जिसने तुमको दुःख दिया वह नहीं रहेगा, तुमसे निज वृत्तान्त स्वर्ग में स्वयं कहेगा।-रा० च० उपा० राम ने जटायु से यह नहो कहा कि रावण को मार डालू गा; किन्तु अंतिम - चरण से यही बात प्रकट होती है । दूसरा पर्यायोक्त-अपने इष्टार्थ को सिद्धि के लिए प्रकारान्तर से कथन किये 'जाने को द्वितीय पर्यायोक्त कहते है। नाथ लखन पुर देखन चहहीं, प्रभु सँकोच उर प्रगट न कहहीं। जो राउर अनुशासन पाऊँ, नगर दिखाय तुरत ले आऊँ।-तुलसी यहाँ रामचन्द्र को स्वयं नगर-दर्शन को अभिलाषा है पर लक्ष्मण को इच्छा - का कथन करके उन्होंने अपना अभीष्ट सिद्ध किया। ____ व्याज से बहाने से किसी इष्ट का साधन किये जाने को भी पर्यायोक्त - मानते हैं। देखन मिस मृग विहंग तरु फिहि बहोरि बहोरि । इसमें मृग आदि देखने के व्याज से जानको का राम को छवि का निरखना अभीष्ट है। यहि घाट ते थोरिक दूर अहै कटि लौं जल थाह दिखाइहौं जू , परसै पग धूरि तरै तरनी घरनी घर को समझाइहौं जू । 'तुलसी' अवलम्ब न और कछ लरिका केहि भांति जिआइहाँ जू , •बर मारिये मोहि बिना पग धोये हौं नाथ न नाव चढ़ाइहौं जू । तुलसों