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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४९४

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काव्यदर्पण व्याजस्तुति के दो अन्य रूप भी देखे जाते हैं- १ जहाँ दूसरे को स्तुति से दूसरे की स्तुति प्रतीत हो । समरविक्ष प्रभंजनपूत हूँ। क्षितिप मै रघुनायक दूत हूँ। इसलिए मम बात सुनो सही । तुम बड़े बुध हो शिशु हो नहीं।-रा० यहाँ रघुनायक-दूत कहने से हनुमान की प्रशसा के साथ राम को भी 'अत्यधिक प्रशशा इस रूप मे होती है कि जिसका दूत ऐसा है उसका मालिक कैसा प्रबल होगा। २ जहां दूसरे की निन्दा से दूसरे को निन्दा हो- तेरा घनश्याम घन हरने पवन दूत बन आया। काम क्रूर अकर नाम है वंचक बना बनाया । गुप्त काम की क्रूरता से अकर की निन्दा तो है ही, साथ ही साथ अक्र र नाम • रखनेवाले को भी निन्दा है। २८ आक्षेप ( Paralepsis) ___ जहाँ विवक्षित वस्तु की विशेषता प्रतिपादन करने के लिए निषेध वा विधि का आभास हो वहाँ आक्षेपालंकार होता है। आक्षेप शब्द का अर्थ है-एक प्रकार से दोष लगाना, बाधा डालना वा 'निषेध करना। जब निषेवात्मक चमत्कार होता है तभी अलङ्कार होता है, अन्यथा नहीं। यह निषेधात्मक ही नहीं, विध्यात्मक भी होता है । प्रथम आक्षेप-विवक्षित अर्थ के निषेध-सा किये जाने को प्रथम आक्षेप कहते हैं। वक्ष्यमाण निषेधाभास- बात कहूँगी बिरहिनी की मैं सुन लो यार । तुम से निर्दय हृदय को कहना भी बेकार ।-अनुवाद यहां विरहिनी की बात कहना है जो वक्ष्यमाण है। वह 'कहूँगो' से प्रकट है। उत्तराद्ध में जो निषेध है वह निर्दय हृदय से कहना व्यर्थ है, इस विशेष कथन को इच्छा से है । अतः, निषेध का आभास है । इस निषेध से विवक्षित की विशेषता बढ़ जाती है। उक्त निषेधाभास- अबला तेरे विरह में कैसे काटे रात । निर्दय तुमसे व्यर्थ है कहना भी वह बात ।-अनुवाद यहाँ विरहव्यथानिवेदन विवक्षित है, जो पूर्वाद्ध में उक्त है। मोका उत्तराद्ध मैं निषेध है। यह निषेवाभास विरह की विशेषता द्योतन करने के लिए ही है।