पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४९५

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आक्षेप ही नहीं दूती अगिनि ते तिय तन ताप विशेषि । इसमें दूती न होने की बात निषेधाभास है। क्योंकि विरहनिवेदन जो दूती का कार्य है, वही किया गया है। इससे दूतो को विशेषता प्रकट होती है । यह उक्त निषेधाभास है। द्वितीय आक्षेप-कथित अर्थ का पक्षान्तर से-दूसरे दृष्टिकोण से निषेध किये जाने को द्वितीय आक्षेप कहते हैं । छोड़ छोड़ फूल मत तोड़ आली ! देख मेरा हाथ लगते ही यह कैसे कुम्हलाये है। कितना विनाश निज क्षणिक विनोद में है, दुःखिनी लता के लाल आसुओं में छाये है। किन्तु नहीं चुन ले खिले खिले फूल सब, रूप, गुण, गंध से जो तेरे मन आये है। जाये नहीं लाल लतिका ने झड़ने के लिए, गौरव के संग चढ़ने के लिए जाये हैं। गुप्त यहाँ पूर्वाद्ध में जिस फूल के तोड़ने का निषेव है उत्तराद्ध में दूसरे दृष्टिकोण से तोड़ने को कहा है। मेरे नाथ जहाँ तुम होते दासी वहीं सुखी होती। किंतु विश्व की भ्रातृ-भावना यहाँ निराश्रित ही रोती।-गुप्त यहाँ पूर्वाद्ध में भरत के साथ माण्डवो के जाने की बात कही गयी है ; पर यक्षान्तर ग्रहण करके जाने का निषेध ध्वनित है। यदि भरत चले जाते तो भ्रातृ- भावना निराश्रित होती रहती ; इसी से नही गये, यह निषेध-सा लगता है। भरत भ्रातृभावना की मूर्ति हैं, यह बात बढ़ जाती है। तृतीय आक्षेप-अनिष्ट वस्तु का जहां विधान आभासित होता हो वहां तीसरा श्राक्षेप होता है। तुम मुझे पूछते हो जाऊँ मै क्या जवाब दूं तुम्हीं कहो। जा कहते रुकती है जबान किस मुंह से तुम्हें कहूँ रहो।-सु० कु० चौ० यहाँ नायिका के कहने से ज्ञात होता है कि वह विदा तो देना चाहती है पर कैसे विदा दे, यह समझ नहीं पाती। इससे विदा-जैसी अनिष्ट वस्तु में विधान आभासित है । पर वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। 'अलङ्कार-मंजूषा' में उक्ताक्षेप, निबंधाक्षेप ओर व्यक्ताक्षेप के नाम दिये गये हैं, जो सदोष हैं। हिन्दी में इनके निम्नलिखित चार मेद भी देखे जाते हैं।