पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४९७

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४१७ विरोधमूल अलंकार मातृ सत्य पितृ सिद्ध सभी, मुझ अर्धांगनी विना अभी। हैं अर्धाग अधूरे ही, सिद्ध करो तो पूरे ही।-गुप्त अर्धाङ्गो सोता के बिना मातृ, सत्य श्रादि को अपूर्णता वणित है। कहा कहाँ छवि आज की भले बने हो नाथ । तुलसी मस्तक तब नवे धनुष बान लो हाथ । इसमें 'विना' शब्द नही है, फिर भी यह अर्थ होता है कि धनुष बान लिये बिना मैं प्रणाम न करूंगा। यहां बिना की ध्वनि है । दशवीं छाया विरोधमूल अलंकार विरोधगर्भ में विरोधात्मक वर्णन रहता है। ऐसे विरोध-मूलक विरोधाभास श्रादि बारह अलंकार हैं। ३० विरोधाभास (contradiction) जहाँ यथार्थतः विरोध न होकर विरोध के आभास का वर्णन हो वहाँ यह अलंकार होता है। विरोधाभास जाति, गुण, क्रिया और द्रव्य में होने के कारण इसके दस प्रकार होते हैं । व्यक्ति में भी विरोधाभास देखा जाता है । जिस कुल के कर लाल काल दोनों रहते हैं, जिसके दृग से सूर्य शशी परिभव सहते हैं, जिस कुल में है दया सुधा सी क्रोध अनल है, जिस कुल में है शास्त्र शस्त्र विद्या का बल है, मैं उसी विप्र-कुल-कमल के लिए बना दिननाथ हूँ। तू मुझे न मिक्षुक जानना नरनाथों का नाथ हूँ।-रा० च० उ० इसकी तीसरी पंक्ति में गुण का, चौथी में जाति का विरोधाभास है। पहली और दूसरी पंक्तियों में व्यक्ति का विरोधाभाव है । विप्र-कुल की महत्ता से सब का परिहार हो जाता है। तुम मांसहीन तुम रक्तहीन हे अस्थिशेष तुम अस्थिहीन, तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल हे चिर पुरान हे चिर नवीन ।-पंत दूसरे चरण में द्रव्य-द्रव्य का और चौथे में गुण-गुण का विरोधाभास है, जिसका परिहार गांधीजी के व्यक्तित्व से हो जाता है । का० द०-३२