पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५०४

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४२४ काव्यदपण तुम क्यों न मानोगे पिता के वाक्य को सत्प्रेम से। घर से अधिक ही सर्वदा वन में रहोगे क्षेम से।-रा० च० उ० इसमें राम के वनगमन तथा उनके वहां शातिपूर्वक निवाप्त का निर्विघ्न होना वर्णित है। अधिक (Exceeding) जहाँ आधार और आधेय का न्यूनाधिक्य वर्णन हो वहाँ अधिक अलंकार होता है। १ जहाँ आधार से अधिक प्राधेय हो वहां प्रथम अधिकार होता है। नयी तरंगे थीं यमुना में नयी उमंगें ब्रज में। तीन लोक से दीख रहे थे लोट-पोट इस रज में। -गुप्त रज में तीनों लोक का दीख पड़ना आधार से अधिक श्राधेय है। २ जहाँ श्राधेय से आधार अधिक वर्णित हो वहां द्वितीय अधिक अलंकार होता है। अश्वा अपने पैरों पर ही खड़ा पाप वह नटवर । बची रसातल जाने से यह धरा वहीं पद धरकर ।-गुप्त यहाँ नटवर श्रीकृष्ण श्राधेय से घरा आधार का अधिक वर्णन है । ३६ अल्प (Smallness) छोटे आधेय की अपेक्षा बड़े आवार का भी जहाँ वर्णन किया जाय वहाँ यह अलंकार होता है। अब जीवन की हे कपि आस न मोहिं । कनगुरिआ की मुंदरी कंगन होहिं । तुलसी अँगूठी, वह भी कनगुरिया की, छोटो-खो-छोटो अधिय वस्तु है। उसके लिए बड़ा से बड़ा श्राधार है। उसमें भी अँगूठी कंकण बन जाती है । इस प्रकार छोटे से प्राधेय की अपेक्षा हाथ प्राधेय का और छोटा वर्णन किया गया है। सोता की दुबलता दिखाना ही कवि का अभीष्ट है । मन यद्यपि अनुरूप है तऊ न छटति संक। टूटि पर जनि भार ते निपट पातरी लंक। मतिराम यहाँ मन सक्षम प्राधेय से कमर प्राधेय के टूटने की शंका से मन को अपेक्षा कमर का पतली होना वक्षित है । इसमें सूक्ष्मता ही प्रधान है। ।