सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४२८ काव्यदर्पण होत लोभ ते मोह, मोहहिं ते उपजे गरब । गरब बढ़ावे कोह, कोह कलह कलहहु व्यथा । प्राचीन बिनु विश्वास भगति नहि तेहि बिनु द्रवहिं न राम । राम कृपा बिनु सपनेहुँ, जीवन लह विश्राम । तुलसो इन दोनों में पूर्व-पूर्व कथित पदार्थ उत्तरोत्तर कथित पदार्थ के कारण हैं। यह इसका पहला भेद है। है सुख सपति सुमति ते सुमति पढ़ से होइ पढ़त होत अभ्यास ते ताहि तजउ मति कोइ।-प्राचीन राम कृपा ते परम पद • कहत पुराने लोय । राम कृपा है भक्ति ते भक्ति भाग्य ते होय।-प्राचीन यहाँ उत्तरोत्तर कथित पदार्थ पूर्व-पूर्व कथित पदार्थों के कारण हैं। ___४१ एकावली (Necklace) जहाँ वस्तुओं के ग्रहण और त्याग को एक श्रेणी बन जाय, वह 'विशेषण भाव से हो या निषेध भाव से, वहाँ यह अलंकार होता है। मैं इस झरने के निर्झर में प्रियवर सुनता हूँ वह गान । कौन गान ? जिसकी तानों से परिपूरित है मेरे प्राण । कौन प्राण ? जिनको निशि वासर रहता एक तुम्हारा ध्यान । कौन ध्यान ? जीवन-सरसिज को जो सदैव रखता अम्लान । -रायकृष्ण दास इसमें गान, प्राण, ध्यान के ग्रहण-त्याग को एक श्रेणी है। वृन्दावन में नव मधु आया, मधु में मन्मथ आया । उसमें तन, तन में मन, मन में एक मनोरथ आया । -गुप्त इसमें मधु, मन्मथ, तन, मन और मनोरथ की एक श्रेणी हो गयी है। इन दोनों में त्याग और ग्रहण विशेषण भाव से हैं। सोभति सो न सभा जहँ वद्ध न वृद्ध न ते जु पढ़े कछु नाहीं । ते न पढ़े जिन साधु न साधित दीह दया न हियै जिन माही । सो न दया जु न धर्म धरै धर धर्म न सो जहँ दान वृथा हो। दान न सो जहं सांच न केसव' सांच न जो जु बसै छल छांहीं । इसमें वह सभा नहीं जिसमें वृद्ध नहीं, इस प्रकार निषेत्रात्मक शृङ्खला बँधती गयी है।