पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५१४

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४३४ काव्यदपस दंड जतिन कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज । ___ जीतो मनसिज सुनिय अस रामचन्द्र के राज । प्राचीन __इसमें 'दंड' और 'भेदः श्लिष्ट हैं । अर्थात् दण्ड ( सजा ) कहीं नहीं। केवल संन्यासियों के ही हाथ में दण्ड ( संन्यास की छड़ी ) है। ऐसे ही भेद' को भी जानना चाहिए। ४६ काव्यार्थापत्ति (Presumption or necessary Conclusion) जिसके द्वारा दुष्कर कार्य को सिद्धि हो उसके द्वारा सुगम कार्य की सिद्धि क्या कठिन है, ऐसा जहाँ वर्णन हो वहाँ यह अलंकार होता है। यहां 'श्रापत्ति' का अर्थ 'श्रा पड़ना है । देखो यह कपोत कण्ठ, बाहु बल्ली कर सरोज उन्नत उरोज पीन-क्षीण कटि- नितम्ब भार-चरण सुकुमार-गति मंद-मंद छट जाता धैय ऋषि-मुनियों का देवों भोगियों की तो बात ही निराली हे।-निराला ऋषि-मुनियों के धैर्य छूट जाने को सामर्थ्य से भोगियों का धैय छूट जाना स्वतः सिद्ध हो जाता है। प्रभु ने भाई को पकड़ हृदय पर खींचा, रोदन जल से सविनोद उन्हें फिर सींचा उसके आशय की थाह मिलेगी किसको ? जनकर जननी भी जान न पायो जिसको।-गुप्त भरत को जन्म देनेवाली जननी भी जिनके अाशय को जान न सको, इस अर्थ की प्रबलता से और किसी को उनके श्राशय का न जानना स्वतः सिद्ध है । ५० विकल्प ( Alternative) जहाँ दो समान बलवाली विरुद्ध बातों के एक हो काल और एक ही स्थिति में विरोध होता हो अर्थात् या तो यह या वह, इस प्रकार का कथन किया जाय वहाँ यह अलंकार होता है। आते यहां नाथ निहारने हमें, उद्धारने या सखि तारने हमें। या जानने को किस भांति जी रहे, तो जान लें वे हम अङ्क पो रहे ।-गुप्त - यहां तुल्यबलवाली विरोधी वस्तुओं के एकत्र एककालिक विरोध होने से विकल्प अलंकार है।