पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५२१

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काव्यदर्पण २ हे अनन्त रमणीय ! कौन तुम ? यह मैं कैसे कह सकता। __कैसे हो, क्या हो, इसका तो भार विचार न सह सकता। हे विराट ! हे विश्वदेव ! तुम कुछ हो ऐसा होता भान ।-प्रसाद पहले का उत्तर ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी ने इस उत्तर के लिए प्रश्न किया हो और दूसरे का जो उत्तर है वह संदिग्ध वा असंभाव्य है। दोनो उत्तर चमत्कारपूर्ण हैं। (२) प्रश्न के वाक्य में ही उत्तर या अनेक प्रश्नों का एक ही उत्तर दिया जाना द्वितीय उत्तर अलकार वा प्रश्नोत्तर अलकार है। यह चित्रोत्तर अलकार भी कहा जाता है। सरद चन्द की चांदनी को कहिये प्रतिकूल ? सरद चन्द की चाँदनी कोक हिये प्रतिकूल । प्राचीन यहाँ द्वितीय पद में 'कहिये' के 'क' को प्रश्न के 'को' के साथ मिला दिया तो उत्तर हो गया कि 'कोक' के 'हिये' के प्रतिकूल चाँदनी है। पान सड़ा घोड़ा अड़ा क्यों कहिये ? फेरे बिना। गधा दुखी ब्राह्मण दुखी क्यों कहिये ? लोटे बिना। दोनों पंक्तियों में दोनों का उत्तर एक हो बात में दे दिया गया है। इसे प्रश्नोत्तरालंकार भी कहते है । इसे संस्कृत में अन्तर्लापिका कहा जाता है। उत्तरालंकार का एक भेद 'गूढोत्तर' भी होता है। यह वहां होता है, जहां किसी अभिप्राय के साथ उत्तर दिया जाय । ___ कह दसकंध कवन ते बन्दर । ___ मैं रघुवीर दूत दसकधर । इसमें रावण के निरादर-सूचक 'बन्दर' शब्द द्वारा प्रश्न करने पर हनुमानजी का 'रघुवीर दूत' से उत्तर देना साभिप्राय है । अर्थात्, मै उस राम का दूत हूँ जिन्होंने मारीच आदि राक्षसों को मारा है। मुझे साधारण बन्दर न समझना । मैं भी अपने स्वामी के समान कुछ कर दिखा सकता हूँ।