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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५३२

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मानवीकरण १ मानवीकरण (Personification) 'परसनिफिकेशन' से मानवीकरण का अभिप्राय है । भावनाओं में मानव-गुणों- उसके अंगों के कार्यों का आरोप करना । यह मूर्तिमत्ता काव्य की भाषा में वक्रता और चमत्कृति लाकर उसको प्रभावपूर्ण बना देती है। सुरदासजी कहते हैं- उधो मन न भये दस बीस एकहु तो सो गयो श्याम सँग को अपराधे ईस । तुलसीदासजी कहते हैं- कीन्हें प्राकृतजन गुण गाना; सिर धुनि गिरा लगति पछिताना । कविवर देव ने भी कुछ इसी ढंग से कहा है- जोरत तोरत प्रीत तुही अब तेरी अनीत तुही सहि रे मन । मन का जाना, वाणी का सिर धुनना, मन के द्वारा प्रीत का तोड़ना और जोड़ना आदि मानवोचित कार्यकलाप हैं। रत्नाकरजी का एक पद्यरत्न देखें- गंग कह यो उर भरि उमंग तो गंग सही मैं, निज तरंग बल जो हरगिरि हरसंग मही मैं। ले सबेग विक्रम पतालपुरि तुरत सिधाऊँ, ब्रह्मलोक के बहुरि पलटि कंदुक इव आऊँ। गंगा का कहना, हरगिरि को पृथ्वी पर लाना, पातालपुरी को जाना आदि मार्मिक मूर्तिमत्ता है। श्राधुनिक काल में मानवीकरण वा नररूपक प्रधान अलंकार माना जाने लगा है और फलस्वरूप इसके प्रयोग अधिकाधिक होने लगे है। प्राचीन काल के प्रयोगों से आजकल के प्रयोगों में नवीनता भी अधिक झलकने लगी है। कुछ उदाहरण हैं- अतिपुट लेकर पूर्व स्मृतियाँ खड़ी यहाँ पट खोल । देख आप ही अरुण हुए हैं उनके पाण्डु कपोल ।-गुप्त श्रतिपुट लेकर (उत्कणं होकर) पट खोल (उत्सुक) पाण्डु (विरहकृश)। यहाँ पूर्व स्मृतियों को नारी-रूप देने से वर्णन में तीव्रता आ गयी है । जिसके आगे पुलकित हो जीवन सिसकी भरता। हॉ, मृत्यु नृत्य करती है मुसुकाती खड़ी अमरता ॥-प्रसाद