पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५३४

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४५५ विशेषणविपर्यय डिगगि बि अति गुबि सर्व पब्बै समुद्र सर , ब्यालु बधिर तेहि काल विकल दिक्पाल चराचर । दिग्गयन्द लरखरत परत दसकंठ मुक्ख भर , ब्रह्मांड खंड कियो चंड धुनि जबहिं राम शिवधनु दल्यो । इस प्रसंग की तुलसीदास की उक्त पंक्तियो की भाषा-ध्वनि ऐसी है कि उससे दिगदिगन्त ही तक विकल नहीं होता, बल्कि पढ़ने-सुननेवाले के मन में भी अातंक पैदा हो जाता है। नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक-सी सोहति । बिच-बिच छहरति बुन्द मध्य मुक्तामनि पोहति । लोल,लहर लहि पौन एक पै इक इमि आवत, जिमि नरगनमन विविध मनोरथ करत मिटावत ॥-भारतेन्दु इसके पढ़ने से मन में मनोरथ करने और मिटाने की ही आकांक्षा प्रत्यक्ष नही होती, बल्कि लोल लहरियों पर हम लहराने भी लगते हैं। दल बादल भिड़ गये धरा घस चली धमक से । भड़क उठा क्षय कड़क-तड़क से चमक-दमक से ।-गुप्त इन पक्तियों से शब्दों के तड़क-भड़क और चमक-दमक भी दमकने लगती है। निराला को कुछ पंक्तियाँ पढ़िये- १ झूम-झूम मृदु गरज-गरज घनघोर, राग अंबर में भर निज रोर । झर झर झर निर्झर, गिरि, सर में, घर, मरु, तर, मर्मर सागर में । २ अरे वर्ष के हर्ष बरस तू बरस-बरस रस धार पार ले चल तू मुझको बहा, दिखा मुझको भी निज गर्जन भैरव संसार उथल-पुथल कर हृदय मचा हलचल चल रे चल मेरे पागल बादल । कविता के ये शब्दबंध और नाद-सौन्दर्य अपने-आप अपने भावों को अभिव्यक्त कर रहे हैं। पपोहों की बह पीन पुकार निर्झरों को झारी झर-जर, झींगुर की झीनी झनकार घनों की गुरु गंभीर घहर । बिन्दुओं की छनती छनकार दादुरों के वे दुहरे स्वर, हृदय हरते थे विविध प्रकार शैल पावस के प्रश्नोत्तर ।-पंत शब्दों का ऐसा सुन्दर संचय, सुगम्फन और सुसंगीत पंतजी के हो लिए सहज साध्य हैं। क्योंकि वे शब्दों के अन्तरग में पैठकर उनके कलरव सुनते हैं और उनसे भावो को संवारने-सिगारने में सिद्धहस्त हैं। कवियों को चाहिए कि इस प्रकार को वर्णविन्यासकला को कण्ठाभरण बनावें।