४५६ काव्यदर्पण ३ विशेषणविपर्यय वा विशेषण व्यत्यय "किसी कथन को विशेष अर्थगर्भित तथा गंभीरक करने के विचार से विशेषण का विपर्यय कर दिया जाता है। अभिधावृत्ति से विशेषण को जहाँ जगह है वहां से हटाकर लक्षणा के सहारे उसे दूसरी जगह बैठा देने से काव्य का सौष्ठव कभी-कभी बहुत बढ़ जाता है। भावाधिक्य की व्यजना के लिए विशेषण-विपर्यय अलंकार का व्यवहार बहुत सुन्दर हैं।'-सुधांशु "ह है सोऊ घरी भाग उघरी अनंदघन सुरस बरसि लाल देखि हौं हरी हमें।" प्राचीन कविता की इस पक्ति में 'सोऊ घरी भाग-उघरी' का विशेषण-विपर्यय से 'खुले भाग्यवाली घड़ी में - यह अर्थ होता है । अजातशत्र नाटक को 'पद्मावती' 'उदयन' के तिरस्कार से जब वीणा बजाने में असमर्थ हो जाती है तब यह गीत गाती है- निर्दय उँगली अरी ठहर जा, पल भर अनुकम्पा से भर जा, यह मूच्छित मूर्छना आह-सी निकलेगी निस्सार ।-प्रसाद इसमें मूच्र्छना का विशेषण मूच्छित है। पद्मावती तिरस्कार के कारण अपने आपमें नहीं है । वह विकलव्यथित ही नहीं, मर्माहत भी है । इस दशा में मूर्च्छना का अस्वाभाविक अवस्था में निकलना ही संभव है। वह आह-सी लगेगी ही। इस प्रकार यथार्थ में मूर्च्छना मूञ्छित नहीं। मच्छित रूप में स्वयं पद्मावती हो है। इसमें विशेषणविपर्यय से हादिक दुख-दैन्य का-मम-पीड़ा का-प्रकटीकरण जिस अलौकिक कोमलता, अकथनीय करुणा तथा अतुलनीय तीव्रता के साथ हुआ है वह अवर्णनीय है। आधुनिक कवियों ने विशेषण-विपर्यय में मूछित विशेषण का विशेष प्रयोग किया है। जैसे, जब विमूच्छित नींद से मैं था जगा, कौन जाने किस तरह पीयूष सा एक कोमल समव्यथित निःश्वास था पुनर्जीवन सा मुझे तब दे रहा ।-पंत यहाँ मूञ्छित नींद नहीं, जागनेवाला व्यक्ति मूञ्छित है। इसके तृतीय चरण में मूर्त नायिका के लिए 'समव्यथित निःश्वास' से अमूर्त का मूर्त-विधान भी किया गया है। है विषाद का राज तड़पता बंदी बनकर सुख मेरा।। ..: कैसे मूच्छित उत्कंठा की वारण प्यास बुझाऊँगा।-द्विज * इनमें भी उत्कण्ठा मूच्छित नहीं। किन्तु विषाद के राज में दुखो व्यक्ति हो। भूमि है क्योंकि दुखिया अफ्नो इच्छापूर्ति न होने से मूच्छित-विकल ती
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