पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/६

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है। अलंकारों का सक्ष्म विषचन, उनकी विशेषता, एक का दूसरे से अन्तर्भाव आदि-अनेक विषय 'काव्यालोक' के लिए छोड़ दिये गये हैं। पुस्तक के प्रतिपाद्य विषयों के सभी लक्षण सरल गद्य में लिखे गये हैं। उदाहत कठिन पद्यों का स्पष्ट अर्थ दे दिया गया है । फिर उन पद्यों का लक्षण-समन्वय भी गद्य में ही किया गया है । इस व्याख्यात्मक समन्वय ने लक्षणोदाहरणः को सुबोध तो बना ही दिया है, अन्यान्य उदाहरणों को हृदयंगम करने का पथ भी प्रशस्त कर दिया है । अतः प्रतिपादित विषय जिज्ञासुओं को जिज्ञासा को परिपुष्ट करने में समर्थ होंगे, ऐसी आशा की जा सकती है। इसमें 'प्रश्न' जैसे नूतन अलंकार का, 'अपह्न ति' के विशेषापलात-जैसे नये भेद का तथा भूमिका के 'पर्यायोक्त' अलंकार के विवेचन-जैसे विवेचन का निदर्शन कर दिया गया है। इस पुस्तक में आये हुए प्रायः सभी उदाहरण प्रसिद्ध नवीन कवियों के नवीन काव्यों से चुने गये हैं। फिर भी मैं प्राचीनों को सरल-सरल कविताओं को यत्र तत्र उद्धृत करने का लोभ संवरण न कर सका । नाममात्र के ही इसमें ऐसे उदाहरण आये हैं जो अन्यत्र कही उदाहृत हैं । सर्वत्र लेखकों वा ग्रन्थों के नाम दे दिये गये हैं। बिना नाम के उदाहरण मेरे न समझे जायें, इसलिए अपनी तुकबन्दियों के साथ 'राम लगा दिया गया है। उदाहरणों के अभाव में 'अनुवाद' के नाम से संस्कृत के कुछ अनूदित उदाहरण भी श्रा गये हैं । दोष-प्रकरण के उदाहरणों में कवियों का नाम-निर्देश जान-बूझकर हो छोड़ दिया गया है। इम हिन्दी के प्राचार्य या प्राचार्यायमाण अन्थकारों के ग्रन्थों के खण्डन-मण्डन या गुणदोष-विवेचन के विशेष पक्षपाती नहीं हैं, क्योंकि उन्होंने जहाँ तक समझा, लिखा। वे उसके लिए प्रशंसाह है । उनको विशेष सालोचनात्मक चर्चा करके मैं अपने ग्रन्थ का महत्व बढ़ाना नही चाहता और न यहो चाहता कि इस ग्रन्थ के विशिष्ट विषयों का निर्देश करके इसकी विशेषता बतलायो जाय । इसकी उपयोगिता का अनुभव साहित्य-रस-रसिक करेंगे, मेरे कहने से नहीं, अपने मन से-नाहि कस्तूरिकामोदः शपथेन विभाव्यते । ___एक दो स्थलों पर एक दो साहित्यिक विद्वानों के विचारों की जो विवेचना अनिच्छिन रूप से हो गयी है उसका यह उद्दश्य कदापि नहीं कि उनके दोष दिखलाये जायें और उनका परित्याग कर दिया जाय । नहीं, ऐसा कदापि नहीं है। अभिनवगुप्त कहते हैं कि सज्जनों के मतों के दोष दिखलाकर उन्हें छोड़ न देना चाहिये, बल्कि उनको सुधारकर ग्रहण कर लेना चाहिये। पहले जिसकी स्थापना हो चुकी है, आगे उसमें नयी योजना करने से मूल की स्थापना का हो फल उपलब्ध होता है- ...